रचानावली
Wednesday, July 10, 2024
Tuesday, July 14, 2015
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन--3
अचौर्य—(प्रवचन—तीसरा)
3
सितंबर 1970,
षणमुखानंद
हाल, मुम्बई
मेरे
प्रिय आत्मन्,
हिंसा
का एक आयाम
परिग्रह है।
हिंसक हुए
बिना परिग्रही
होना असंभव
है। और जब
परिग्रह विक्षिप्त
हो जाता है, पागल हो
जाता है, तो
चोरी का जन्म
होता है। चोरी
परिग्रह की
विक्षिप्तता
है, पजेसिवनेस दैट हैज गॉन मैड।
स्वस्थ
परिग्रह हो तो
धीरे-धीरे
अपरिग्रह का
जन्म हो सकता
है। अस्वस्थ
परिग्रह हो तो
धीरे-धीरे
चोरी का जन्म
हो जाता है।
स्वस्थ परिग्रह
धीरे-धीरे दान
में
परिवर्तित
होता है, अस्वस्थ
परिग्रह
धीरे-धीरे
चोरी में
परिवर्तित
होता है।
अस्वस्थ
परिग्रह का
अर्थ है कि अब
दूसरे की चीज
भी अपनी दिखाई
पड़ने लगी, हालांकि
दूसरा अपना
नहीं दिखाई
पड़ता है। अस्वस्थ
परिग्रह का
अर्थ है, वह
जो इनसेन पजेसिवनेस
है, वह
दूसरे को तो
दूसरा मानती
है, लेकिन
दूसरे की चीज
को अपना मानने
की हिम्मत करने
लगती है। अगर
दूसरा भी अपना
हो जाये तब
दान पैदा होता
है। और जब
दूसरे की चीज
भर अपनी हो
जाये और दूसरा
दूसरा रह जाये
तो चोरी पैदा
होती है।
Monday, September 2, 2013
Monday, December 24, 2012
पोनी एक कुत्ते की आत्म कथा,
अध्याय—3
काल चक्र एक नियति--
काल चक्र एक नियति--
काल चक्र का
चलना एक नियति
हैं, इसकी
गति मैं
समस्वरता हैं,एक लय वदिता
हैं, एक
माधुर्य हैं
पूर्णता है।
जो चारों तरफ
फैले जड़ चेतन
का भेद किए
बिना, सब
में एक धारा
प्रवाह बहती
रहती है।।
उसके साथ बहना
ही आनंद हैं, उत्सव
हैं, जीवन
की सरसता हैं।
उसका अवरोध दु:ख, पीड़ा और
संताप ही लाता
हैं। लेकिन हम
कहां उसे समझ
पाते हमे तो
खोए रहते है
अपने मद में
अंहकार में, पर की
लोलुपता में
और सच कहूं तो
इस मन ने मनुष्य
के साथ रहने
से कुछ नये
आयाम छुएँ है।
मन में कुछ
हलचल हुई है।
कुछ नई तरंगें
उठी हे। मुझे
पहली बार मन
का भास इस
मनुष्य के साथ
रहते हुए हुआ।
ऐसा नहीं है कि
मन नहीं होता
पशु-पक्षियों
में, होता
तो है परंतु वो निष्क्रिय
होता है। सोया
हुआ कुछ-कुछ
अलसाया सा जगा
हुआ। लेकिन मनुष्य में यही
मन क्रियाशील
या सक्रिय हो
जाता है।
लेकिन मनुष्य
में ये पूर्ण
सजग,
जागरूक भी हो
सकता है। इस
लिए उस की बेचैनी
ही उसे धकेलते
लिए चली जाती
है। मनुष्य
केवल मन पर
रूक गया है।
शायद अपने नाम
को सार्थक
करने के लिए
ही समझो ‘’मनुष्य‘’ जिस का
मान उच्च हो
गया है। इस एक
मन के कारण
उसके पास जो
बाकी इंद्रियाँ
या अतीन्द्रिय
शक्ति कुदरत
ने सभी
प्राणीयों को
दी थी वो तो
धीरे-धीरे मृत
प्राय सी होता
जा रहा है।
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पोनी एक कुत्ते की आत्म कथा
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पोनी एक कुत्ते की आत्म कथा
अध्याय—2
मनुष्य
का पहला स्पर्श
मेरा जन्म
दिल्ली कि
अरावली पर्वत श्रृंखला
के घने जंगल
मैं हुआ, जो तड़पती
दिल्ली के फेफडों
ताजा हवा दे
कर उसे जीवित
रखे हुऐ है।
कैसे अपने को पर्यावरण
के उन भूखे भेडीयों
से घूंघट की
ओट मे एक
छुई-मुई सी
दुल्हन की
अपने आप को बचाए
हुऐ है। यहीं
नहीं सजाने
संवारने के
साथ-साथ
इठलाती मस्त मुस्कराती
सी प्रतीत
होती है । ये
भी एक चमत्कार
से कम नहीं है,
वरना
उसके
अस्तित्व को
खत्म करने के
लिए लोग बेचैन,
बेताब,
इंतजार
कर रहे है।
गहरे बरसाती
नाले, सेमल,
रोझ, कीकर, बकाण, अमलतास,
ढाँक
और अनेक जंगली
नसल के पेड़ों
की भरमार है।
सर्दी में झाड़ियाँ,
कीकर, ढाँक के छोटे
बड़े पेड़ सभी
अपने पत्तों
को गिरा, कैसे एक दूसरे
मे समा जाना
चाहते हैं।
रात भर ठिठुरन
के बाद सुबह
की पहली किरण
उपर की फूलगिंयों
को छुई नहीं
की नीचे कि
कोमल अमराई तक
सिहर उठती है।
रात भर कण-कण
कर नहलाई ओस
की एक-एक बूँदों
को सूर्य की किरणें
फैली नहीं की
वो उसे कैसे
दूर छिटक देना
चाहती हैं।
पूरी प्रकृति
रात मैं कैसे अल
साई सी, सिहरी सी, एक अवचय
सी अनिकटता
साथ लिए होती
हैं । उसके
पास से गूजरों
तो कैसे छटांक,सिहर
सिमट जाना चाहती
हैं।
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पोनी—एक कुत्ते की आत्म कथा
अध्याय—1
(मां
से बिछुड़ना)
एक
सुहानी बसंत, हवा में
ठंडक के साथ थोड़ी
मदहोशी छाई
थी। धूप में
भी हलकी-हलकी तपीस
के साथ-साथ
थोड़ी सुकोमलता
भी थी। जो
शारीर में एक
सुमधुर अलसाया
पन भर रही थी।
कोमल अंकुरों
का निकलना, पुराने
के विछोह मे
नए का पदार्पण, जीवन में
कोमलता के साथ
सजीवता फैलती
जा रही था।
पेड़ो की बल
खाती टहनियाँ,
उन पर
निकले नए कोमल
चमकदार रंग
बिरंगे पत्ते, चारों
तरफ़ सौन्दर्य
बिखेर रहे थे
। उन सुहावने
१४ वसंतों को
आज याद करना
मानो जीवन के
उस तल को छूना
है जो आज भी मीलों
लम्बा ही नहीं,
अथाह अनंत-गहरा
भी लग रहा हैं
। ये १४ वर्ष
मात्र वर्ष ही
नहीं, जीवन
के उस अनन्त
छोर को छू
लेने जैसा
लगता है, जो युगों
पीछे छुट गये
हो।
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पोनी एक कुत्ते की आत्म कथा
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Saturday, April 9, 2011
सेक्स और तंत्र—
(मेरी सेक्स के पार की यात्रा)
जीवन में जो भी हम आज पाते है, वो कल बीज रूप में हमारा ही बोया हुआ होता है। पर समय के अंतराल के कारण हम दोनों में तारतम्यता नहीं जोड़ पाते और कहते है। ये क्या हो गया। उसमें कुछ अच्छा हो या बुरा। ये भेज बीज में है। बात उन दिनों की जब मैंने आठवीं कक्षा के पेपर दिये थे। हमारे जमाने में पांचवी-आठवीं और ग्यारहवां के बोर्ड के पेपर होते थे। पेपरों के तनाव को कम करने के लिए में उन दिनों प्रेम चन्द और रविन्द्र नाथ को पढ़ रहा था। इसी बीच मेरे हाथ में महात्मा गांधी की आत्म कथा आ गई। पढ़ कर चमत्कृत हो गया।
Wednesday, December 30, 2009
स्वर्णीम बचपन--39
पंडित जवाहरलाल नेहरू से भेट
ठीक है।
....नहीं तो नोट कौन लिखेगी, अब लिखने वाले को तो कम से कम लिखने वाला ही चाहिए।
अच्छा। ये आंसू तुम्हारे लिए है, इसीलिए तो ये दाईं और है। आशु चुक गई। वह बाईं और एक छोटा सा आंसू उसके लिए भी आ रहा है। मैं बहुत कठोर नहीं हो सकता। दुर्भाग्यवश मेरी केवल दो ही आंखें है। और देवराज भी यहीं है। उसके लिए तो मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं। और व्यर्थ में नहीं। वह मेरा तरीका नहीं है। जब में प्रतीक्षा करता हूं। तो वैसा होना ही चाहिए। अगर वैसा नहीं होता तो इसका मतलब है कि मैं सचमुच प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। अब फिर कहानी को शुरू किया जाए।
Thursday, November 19, 2009
गुड़िया को मालूम है कि मैं नींद में बोलता हूं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि मैं किससे बोलता हूं। सिर्फ मैं जानता हूं यह। बेचारी गुड़िया, मैं उससे बातें करता हुं और वह सोचती है और चिंता करती है कि क्यों बोल रहा हूं और किससे बोल रहा हूं। लेकिन उसे पता नहीं कि मैं इसी तरह उससे बातें करता हूं। नींद एक प्राकृतिक बेहोशी है। जीवन इतना कटु है कि हर आदमी को रात में कम से कम कुछ घंटे नींद की गोद में आराम करना पड़ता है। और उसको आश्चर्य होता है कि मैं सोता भी हूं या नहीं। उसके आश्चर्य को मैं समझ सकता हूं। पिछले पच्चीस सालों से भी अधिक समय से मैं सोया नहीं हूं।
देव राज, चिंता मत करो। साधारण नींद तो मैं सारी दुनिया में किसी भी व्यक्ति से अधिक सोता हूं—तीन घंटे दिन में और सात, आठ या नौ घंटे रात में—अधिक से अधिक जितना कोई भी सो सकता है। कुल मिला कर पूरे दिन में मैं बारह घंटे सोता हूं। लेकिन भीतर मैं जागा रहता हूं। मैं अपने को सोते हुए देखता हूं। और कभी-कभी रात के समय इतना अकेलापन होता है कि मैं गुड़िया से बात करने लगता हूं। लेकिन उसकी बहुत मुश्किलें है। पहली तो यह कि जब मैं नींद में बोलता हूं तो हिंदी में बोलता हूं। नींद में मैं अंग्रेजी में नहीं बोल सकता, मैं कभी नहीं बोलुगां, हालांकि अगर मैं चाहूं तो बोल सकता हूं, एक आध बार मैंने कोशिश भी की है और मैं सफल भी रहा हूं। लेकिन मजा किरकिरा हो जाता है।
तुम्हें मालूम होगा मैं उर्दू की प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का एक गीत रोज सुनता हूं। रोज यहां आने से पहले मैं उसको बार-बार सुनता हू। इतनी बार सून कर तो कोई पागल हो जाएगा। मैं रोज गुड़िया पर उसी गीत की ड्रिलिंग करता हूं। उसे सुनना ही पड़ता है, उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। जब मेरा काम पूरा हो जाता है। तो मैं फिर उस गीत को सुनता हूं। मैं अपनी भाषा को प्रेम करता हूं,...इस लिए नहीं की वो मेरी भाषा है, लेकिन वह इतनी सुंदर है कि अगर वह मेरी न भी होती तो भी मैं उसे सिखा होता।
जो गीत वह रोज सुनती है और जो उसे बार-बार सुनना पड़ेगा, उसमें कहा है: ‘तुम्हें याद हो के न याद हो, वह जो हममें तुममें करार था। कभी तुम कहा करते थे कि तुम दुनिया में सबसे खूबसूरत स्त्री हो। अब मुझे नहीं मालूम कि तुम मुझे पहचान पाओगें या नहीं। शायद तुम्हें याद नहीं, लेकिन मुझे अभी भी याद है। मैं न उस करार को भूल सकती हूं, न तुम्हारे शब्दों को जो तुमने मुझसे कहे थे। तुम कहा करते थे कि तुम्हारा प्रेम पावन है। क्या तुम्हें अभी भी याद है। शायद नहीं, लेकिन मुझे याद है—निश्चित ही पूरी तरह से नहीं, समय ने कुछ-कुछ भुला दिया है।’
‘मैं तो जीर्ण शीर्ण महल हूं, लेकिन अगर तुम देखो, अगर तुम ध्यान से देखो तो पाओगें कि मैं वैसी ही हूं। मुझे अभी भी तुम्हारा करार और तुम्हारे शब्द याद है। वह करार जो कभी हमारे बीच था, क्या वह तुम्हे अभी भी याद है के नहीं? मैं तुम्हारे बारे में नहीं जानती, लेकिन मुझे अभी भी याद है।
मेरी नींद में जब मैं गुड़िया से बातें करता हूं तो फिर हिंदी में बोलता हूं, क्योंकि मुझे मालूम है कि उसका अचेतन अभी भी अंग्रेजी नहीं है। वह इंग्लैड में सिर्फ कुछ वर्षो तक ही थी। उसके पहले वह भारत में थी और अब वह फिर भारत में है। इन दोनों कालों के बीच जो घटा, वह सब मैं पोंछ डालने की कोशिश करता रहा हूं। इसके बारे में बाद में, जब समय आएगा....’
आज मैं जैन धर्म के बारे में कुछ कहने बाला था। मेरा पागलपन तो देखो। हां, मैं बिना किसी सेतु के एक शिखर से दूसरे शिखर पर कूद सकता हूं। लेकिन तुम्हें एक पागल आदमी को थोड़ा सहन करना पड़ेगा। तुम प्रेम में पड़े हो, यह तुम्हारी जिम्मेवारी है, मैं इसके लिए जिम्मेवार नहीं हूं।
संसार में सबसे कठिन तपश्चर्या बाला धर्म जैन धर्म है, या दूसरें शब्दों में सर्वाधिक आत्मपीड़क और परपीडक धर्म जैन धर्म है। जैन मुनि स्वयं को इतना सताते है कि संदेह होने लगता है कि ये पागल तो नहीं है।
मैं चार या पाँच साल का रहा होऊगां जब मैंने पहली बार एक दिगंबर जैन मुनि को देखा। वह मरी नानी के घर पा आमंत्रित था। मैं अपनी हंसी न रोक सका। मेरे नाना ने मुझे कहा: ‘चुप रहो, में जानता हूं कि तुम शरारती हो। जब तुम जब तुम पडोसियों को परेशान करते हो तो मैं तुम्हें माफ कर सकता हूं, लेकिन यदि तुमने मेरे गुरू के साथ कोई शैतानी की तो मैं तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता। ये मेरे गुरु है। इन्होंने मुझे घर्म के आंतरिक रहस्यों में दीक्षा दी है।
मैंने कहा: ‘आंतरिक रहस्यों से मेरा कोई संबंध नहीं हैं। मेरा तो दिलचस्पी बाहरी रहस्यों में है जो वह इतने साफ दिखा रहे है। ये नगन क्यों है। क्या ये कम से कम चडढी या ल्ंगोटी नहीं पहल सकते है?’
मेरे नाना भी हंस पड़े। उन्होंने कहा: ‘तुम समझते नहीं हो।’
मैंने कहा: ‘ठीक है, मैं खुद ही उनसे पूछ लूंगा।’ फिर मैंने अपनी नानी से पूछा, ‘क्या मैं इस बिलकुल पागल आदमी से कुछ प्रश्न पूछ सकता हूं जो इस प्रकार पुरूष और स्त्रियों के सामने नग्न चले आते है?’
मेरी नानी ने हंस कर कहा: ‘जो पूछना हो पूछो, और तुम्हारे नाना क्या कहते है, इसकी फ़िकर मत करो। मैं तुम्हें इजाजत देती हूं। अगर ते कुछ कहें तो तुम इशारा कर देना। मैं उन्हें ठीक कर दूंगी।’
नानी बहुत ही अच्छी थीं, बहुत साहसी थी; बिना किसी सीमा के पूर्ण स्वतंत्रता देने को तैयार थी। उनहोंने मुझसे यह भी नहीं पूछा कि मैं क्या पूछने जा रहा हूं। उन्होंने बस इतना ही कहा: ‘जो पूछना हो पूछो।’
गांव के सब लोग जैन मुनि के दर्शन के लिए इकट्ठे हो गए थे। उनके तथाकथित उपदेश के बीच में मैं खड़ा हो गया। यह करीब चाल साल पहले की बात है। और तब से आज तक मैं निरंतर इन मूढ़ों से लड़ाई लड़ रहा हूँ। जिसका अंत मेरी मृत्यु के साथ ही होगा। शायद तब भी समाप्त न हो, मेरे लोग शायद उसे जारी रखें।
मैंने सरल से प्रश्न पूछे, लेकिन वह उत्तर न दे सका। मुझे बडी हैरानी हुई और मेरे नाना को बहुत शर्म आई। मेरी नानी ने मेरी पीठ थपथपाई और कहा, ‘शाबाश तुमने कर दिखाया। मुझे पता था कि तुम कर सकोगे।’
क्या पूछा था मैने? सिर्फ सीधा-सरल प्रश्न पूछे थे। मैंने पूछा था, ‘आप दुबारा जन्म क्यों नहीं लेना चाहते, जैन धर्म में यह सरल सा प्रश्न है, क्योंकि जैन धर्म की कुल कोशिश है कि दुबारा जन्म न लेना पड़े। यह दुबारा जन्म को रोकने का पुरा विज्ञान है। तो मैने उससे बुनियादी प्रश्न पूछा। क्या आप दुबारा जन्म नहीं लेना चाहते?’
उसने कहा: ‘नहीं, कभी नहीं।’
तो फिर मैंने पूछा: ‘आप आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते, आप अभी भी श्वास क्यों लिए जा रहे है। क्यों खाना, क्यों पानी पीना? खत्म करो, आत्महत्या कर लो। छोटी सी बात के लिए क्यों इतना उपद्रव करना।‘
वह चालीस साल से ज्यादा उम्र का न था। मैंने उससे कहा: ‘अगर आप इस प्रकार चलते रहे तो शायद आपको और चालीस साल तक या उससे भी अधिक जीना पड़ेगा।’
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि जो लोग कम खाते है वे लंबा जीते है। देवराज निश्चित ही मुझसे सहमत होगा, यह तो बार-बार प्रमाणित किया जा चूका है कि अगर आप किसी भी प्राणी को उसकी आवश्यकता से अधिक भोजन दें तो वे मोटे और सुंदर और सुडौल जरूर हो जाते है, लेकिन वे जल्दी मर जाते है। अगर आप उनकी आवश्यकता से आधा भोजन दें, ता यह आश्चर्य की बात है कि वे सुंदर तो नहीं दिखाई देते, लेकिन औसत आयु से करीब-करीब दुगुनी आयु तक जीवित रहते है। आधा भोजन और दुगुनी आयु: दुगुना भोजन और आधी आयु।
तो मैंने जैन मुनि से कहा: ‘ये सब तथ्य उस समय मुझे मालूम नहीं थे—अगर आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते तो आप जीवित क्यों है, क्या केवल मरने के लिए, तो फिर आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते?’
मुझे नहीं लगता कि ऐसा प्रश्न उससे कभी किसी ने पूछा होगा शिष्टाचार की इस दुनिया में अभी कोई असली प्रश्न नहीं पूछता है। और आत्महत्या का प्रश्न सबसे असली प्रश्न है। ‘अगर आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते तो, तो आप आत्महत्या कर ले, मैं आपको रास्ता बता सकता हूं। यद्यपि दुनिया के रास्तों के बारे में मैं अधिक नहीं जानता, लेकिन जहां तक आत्म हत्या का सवाल है मैं आपको कुछ सु1झाव अवश्य दे सकता हूं, आप गांव की पहाड़ी से कूद सकते है या आप नदी में छलांग लगा सकते है।’
मैंने जैन मुनि से कहा: ‘बरसात के दिनों में आप मेरे साथ नदी में कूद सकते हो। थोड़ी देर हमारा साथ रहेगा, फिर आप मर सकते है, और में दूसरे किनारे पहुंच जाऊँगा। मैं अच्छा तैर सकता हूं।’ वह बहुत चौड़ी नदी थी, विशेषकर बरसात के दिनों में तो मीलों चौडी, करीब-करीब समुद्र जैसी लगती था। जब उसमें खूब बाढ़ आती तब मैं उसमें कूद पड़ता—दूसरे किनारे पहुँचे के लिए या मरने के लिए, ज्यादा संभावना यही होती थी कि मैं दूसरे किनारे कभी नहीं पहुंचूंगा।
उन्होंने मेरी और इतने गुस्से से देखा कि मुझे उनसे कहना पडा याद रखो, आपको दुबारा जन्म लेना ही पड़ेगा, क्योंकि आप में अभी क्रोध है। चिंताओं के संसार से मुक्त होने का यह तरीका नहीं है। आप इतने गुस्से से मुझे क्यों देख रहे है। मेरे प्रश्न का उत्तर शांति से दीजिए। सुखपूर्वक उत्तर दीजिए। अगर आप उत्तर नहीं दे सकते तो कह दीजिए कि मैं नहीं जानता। लेकिन इतना क्रोध मत कीजिए।
उसने कह: ‘आत्महत्या पाप है, मैं आत्महत्या नहीं कर सकता। लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरा दुबारा जन्म न हो। सभी वस्तुओं का धीरे-धीरे त्याग करके मैं उस स्थिति को प्राप्त कर लूँगा।’
मैंने कहा: ‘कृपया मुझे आप बताइए कि आपके पास है क्या। क्योंकि जहां तक मैं देख सकता हूं, आप नग्न हैं और आपके पास कुछ भी नहीं है।’
मेरे नाना ने मुझे रोकने की कोशिश की। मैंने अपनी नानी की और इशारा किया और उनसे कहा, ‘याद रखिए, मैंने नानी से इजाजत ले ली है। और अब मुझे कोई भी रोक नहीं सकता, आप भी नहीं। मैंने नानी से आपके बारे में बात कर ली थी, क्योंकि मुझे डर था कि आप मुझसे नाराज हो जाएंगे। नानी ने कहा था बस मेरी तरफ इशारा कर देना। चिंता मत करों जैसे ही मैं उनकी तरफ देखूंगी, वे चुप हो जाएंगे।’
और आश्चर्य, ठीक ऐसा ही हुआ। नानी ने देखा भी नहीं और नाना चुप हो गए। बाद में मैं और मेरी नानी खूब हंसे। मैंने उनसे कहा: ‘उन्होंने आप की तरफ देखा तक नहीं।’
असल में उन्होंने अपनी आंखे बंद कर ली, जैसे कि ध्यान कर रहे हो। मैंने उनसे कहा: ‘नाना, बहुत खूब, आप क्रोधित हैं, उबल रहे है, आग जल रही है आपके अन्दर, फिर भी आप आंखें बंद करके ऐसे बैठे है, जैसे ध्यान कर रहे है। क्योंकि आपके गुरु अत्तर नहीं दे पा रहे है, लेकिन मैं कहता हूं कि यह आदमी जो यहां उपदेश दे रहा है, मूर्ख है।’
और मैं चार या पाँच साल से ज्यादा का न था। उसी समय से यही मेरी भाषा रही है। मैं मूढ़ को एकदम पहचान लेता हूं, वह कही भी हो, मेरी एक्सरे आंखों से कोई नहीं बच सकता है। मैं मानसिक-अपंगता को या किसी भी चीज को तुरंत देख लेता हूं।
अभी उस दिन मैंने अपने एक संन्यासी को वह फाउंटेन पेन दिया जिससे मैंने उसका नया नाम लिखा था। सिर्फ यादगार के कि यही है वो पेन जिसका मैंने उसके नये जीवन की, संन्यास की शुरूआत में अपयोग किया था। लेकिन उसकी पत्नी भी वहां थी। मैंने उसकी पत्नी को भी संन्यास लेने के लिए आमंत्रित किया, वह राज़ी थी, और नही भी, डांवाडोल थी—वह हाँ कहना चाहती थी और फिर भी कह नहीं पा रही थी। फिर मैंने उसे फुसलाने की कोशिश की—मेरा मतलब है संन्यास के लिए। मैंने थोड़ी देर अपना खेल जारी रखा और वह हां कहने के बहुत करीब आ गई थी, अचानक मैं रूक गया। मैं भी तो उतना सीधा नहीं हूं जितना बाहर से दिखाई देता हूं। मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं जटिल हूं, मेरा मतलब यह है कि मैं चीजें इतनी स्पष्ट देख सकता हूं कि कभी-कभी मुझे अपना सीधापन और उसका निमंत्रण वापस लेना पड़ता है।
वह डर रहा था। मैं इस संन्यासी और उसकी पत्नी के आर-पार देख सकता था। उन दोनों के बीच कोई सेतु न था। और कभी रहा भी नहीं था, वे बस एक अंग्रेज दंपति थे, तुम जानते हो.....परमात्मा ही जाने कि उन्होंने शादी क्यों की थी? और परमात्मा तो है नहीं, मैं बार-बार यह दोहराता हूं, क्योंकि मुझे हमेशा लगता है कि तुम शायद सोचो कि परमात्मा सच में ही जानता है।
परमात्मा नहीं जानता हैं, क्योंकि वह है ही नहीं। परमात्मा तो ऐसा शब्द है जैसे ‘जीसस’ इसका कोई अर्थ नहीं है। यह केवल एक विस्मयबोधक शब्द है। जीसस को अपना नाम कैसे मिला, उसकी ऐसी ही तो कहानी है।
जोसेफ और मेरी अपने बच्चे के साथ बेथलेहम से घर वापस जा रहे है। मैरी बच्चे के साथ गधे पर बैठी है। जोसेफ गधे की रस्सी हाथ में पकड़े आगे-आगे चल रहा है। अचानक उसका पैर एक पत्थर से टकराया, उसे जोर की ठोकर लगी। वह चीख पडा, ‘जीसस’ और तुम स्त्रियों के ढंग तो जानते ही हो,...मैरी ने कहा, ‘जोसेफ’ मैं सोच रही थी कि अपने बच्चे का नाम क्या रखें। और अभी-अभी तुमने सही नाम ले दिया—‘जीसस।’
इस प्रकार बेचारे बच्चे को अपना नाम मिला। यह संयोग नहीं है कि जब तुम गलती से अपने हाथ पर हथौड़ा मार लेते हो तो चिल्ला पड़ते हो—जीसस, ऐसा मत सोचो कि तुम कोई जीसस को याद कर हरे हो। चोट लगने से जोसेफ की भांति चिल्ला पड़ते हो—जीसस।
मैं यह कह रहा था कि जिसस—यहां तक कि जीसस भी नाम नहीं है, बल्कि सिर्फ एक विस्मयबोधक शब्द है जिसे जोसेफ ने ठोकर लगने पर कहा था। इसी प्रकार है परमात्मा। जब कोई कहता है, ‘हे भगवान’ तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह भगवान में विश्वास करता है। वह तो केवल यह कह रहा है कि यह शिकायत कर रहा है—अगर यहां आकाश में कोई सुनने के लिए बैठा है तो। जब वह कहता है भगवान तो यह ऐसे ही है जैसे सरकारी कागजातों पर लिखा होता है—जिस किसी से भी संबंधित हो। ‘हे भगवान।’ का इतना ही अर्थ है—‘जिस किसी से भी संबंधित हो।’ और अगर वहां कोई नहीं है तो ‘माफ करे, ये किसी से भी संबंधित नहीं है।’ और इसका प्रयोग करने से मैं अपने को रोक नहीं सका’।
************ 15/10/2009 *************(18,804)
Sunday, November 1, 2009
संदेह
अभी मैं खेल रहा हूं, तुम कहते हो, मंदिर में और ज्यादा आनंद आएगा।
तुम तो श्रद्धा सिखा रहे हो और बच्चा सोचता है,
ये कैसा आनंद, यहां बड़े-बड़े बैठे है उदास,
यहां दोड भी नहीं सकता, खेल भी नहीं सकता।
फिर बाप कहता है, झुको , यह भगवान की मूर्ति है।
बच्चा कहता है भगवान यह तो पत्थर की मूर्ति को कपड़े पहना रखे है।
झुको अभी, तुम छोटे हो अभी तुम्हारी बात समझ में नहीं आएगी।
ध्यान रखना तुम सोचते हो तुम श्रद्धा पैदा कर रहे हो,
उसे न केवल इस मूर्ति पर संदेह आ रहा है।
अब तुम पर भी संदेह आ रहा है, तुम्हारी बुद्धि पर भी संदेह आ रहा है।
अब वह सोचता है ये बाप भी कुछ मूढ़ मालूम होता है।
कह नहीं सकता, कहेगा, जब तुम बूढे हो जाओगे,
मां-बाप पीछे परेशान होते है, वे कहते है कि क्या मामला है।
बच्चे हम पर श्रद्धा क्यों नहीं रखते, तुम्हीं ने नष्ट करवा दी श्रद्धा।
तुम ने ऐसी-ऐसी बातें बच्चे पर थोपी, बच्चो का सरल ह्रदय तो टुट गया।
उसके पीछे संदेह पैदा हो गया, झूठी श्रद्धा कभी संदेह से मुक्त होती ही नहीं।
संदेह की जन्मदात्री है। झूठी श्रद्धा के पीछे आता है संदेह,
मुझे पहली दफा मंदिर ले जाया गया, और कहा की झुको,
मैंने कहा, मुझे झुका दो, क्योंकि मुझे झुकने जैसा कुछ नजर आ नहीं रहा।
पर मैं कहता हूं, मुझे अच्छे बड़े बूढे मिले, मुझे झुकाया नहीं गया।
कहा, ठीक है जब तेरा मन करे तब झुकना,
उसके कारण अब भी मेरे मन मैं अब भी अपने बड़े-बूढ़ो के प्रति श्रद्धा है।
ख्याल रखना, किसी पर जबर्दस्ती थोपना मत, थोपने का प्रतिकार है संदेह।
जिसका अपने मां-बाप पर भरोसा खो गया, उसका अस्तित्व पर भरोसा खो गया।
श्रद्धा का बीज तुम्हारी झूठे संदेह के नीचे सुख गया।
--एस धम्मो सनंतनो
Saturday, October 17, 2009
भोला--कहानी
भोला
भोला एक नाम ही नहीं , चलते फिर ते शरीर मैं एक व्यक्तित्व की को मल ता , गरिमा, माधुर्य उसके पोर-पोर से टपकता ही नहीं झरता था। मनुष्य की मनुष्यता, मानस्विता, महिमा या गरिमा उसके दैनिक छोटे बड़े कार्य ो मे देखी जा सकती थी। उसकी विशाल ता को मैने अंतिम चरण मे एक बूढे होते वृक्ष के, क्षण-क्षण बढ़ते सौन्दर्य की तरह जान ा था। फिर चाहे उसकी विशाल लता का खुरदरापन कितना ही उबड़-खाबड,रूखा और आकर्षणहीन हो, उसका सौन्दर्य केवल उसकी कोमलता ही नहीं बखानती, उसकी पूर्णता उसके पल्लव-पल्लव से टपक कर, झूमती लता पर इठलाते हुये पत्ते खुद-ब-खुद कह रहे थे।
रंग का साँवला, साधारण फूली नाक, परंतु मुहँ के हिसाब से कान अधिक बड़े, बोलती काली गहरी आँख, सफ़ेद कंधे तक लहराते केश, जो माथे के काफ़ी ऊपर तक उड़ गए थे। लगता किसी हिमा छादित पर्वत के सौन्दर्य को पूर्णता देने के लिए ही थे। कई बार ऐसा भ्रम होता पर्वत की सुंदरता उसकी विशाल ऊंची चोटियों के कारण थी, या उसपर बिखरी धवलता के कारण गर्वित हो रही थी। खेतों में हल चलाते हुए, मंद्र लय से आगे चलते बैल, पीछे चलती बगुलों की कतार, जैसे बादलों को कोई धरा पर संग साथ लिए चल रहा हो। रोझ की छाँव मैं होठों पर लगी मुरली से छिटकती तानों के समय, सूर्य की सिमटती लाली भी ठहर जाना चाहती थी। मानो वह दिन भर की थकान को बाँसुरी के सुरों में समेट कर अपने को ही ताज़ा नहीं कर रहा, पूरी प्रकृति को ही सहला-सुला रहा था। लगता क्षणिक समय की गति रूक गई हो, औरते-बहुँये सर के बोझ को भूल विमुग्ध सी, मुहँ मैं पल्लू दबाए खड़ी रह जाती थी। गायें-भैंसे ऐसे मूर्तिवत अवाक खड़ी हो जाती कि मुहँ की घास को चबाना ही भूल जाती, पक्षियों का चहकना, बहते पानी का कलरव, या हवा की गति कुछ देर के लिए विषमय, विमुग्ध हो ठहर जाती थी। फिर चारो तरफ़ नीरव शान्ति गहरा जाती, जिससे पत्ते भी अपनी अठखेलियाँ करना भूल जाते थे।
बचपन मे जो छवि, मेरे बाल मन ने भोला दादा की देखी थी। वो मेरे अवचेतन के गहरे मे कहीं मूर्ति रूप बन बैठ गई थी। समझ बढ़ने के साथ-साथ वो महान से महानतम हो गई। उसकी गरिमा, गौरव इस विशाल नीले आसमान मे इतना बड़ा हो गया, की चाह कर भी उस अदृश्य छोर को ना जान सका। छोटा सा गाँव, गिनती के घर, थोडे से आदमियों से भला कोई काम चलता है। सोचते थे भई गाँव तो तभी पूर्ण होगा जब प्रत्येक जाती धर्म का इसकी शोभा बढ़ा ये। दूर-दराज कहीं से अन्य जाती का आ जाये बसने के लिये, उसे रहने को धर, बोने जोतने को खेते देते, पूरा गाँव उसके दुख-दर्द मे हमेशा तैयार रहता था। आज भी गाँव का पहला मकान नम्बर(ज़्झ्-१) वो एक बाल्मीकी परिवार का है। आज आबादी की भीड़ ने अपनत्व और प्रेम को किसी कोने मे धकेल दिया लगता है। कैसे प्रेम टपकता था, लोगो की आँखो और जबान से, जैसे महुआ से झरता रस जिसके अतिशय को रोकना चाह कर भी नहीं रोक पा रहा हो। फूल खिलने के बाद क्या अपनी गंध को रोक-समेट सकता है अब फैलने से,ठीक ऐसे ही खीला हुआ मनुष्य कैसे रोके अपने प्रेम को। आज गज़ भर लम्बे लटकते सपाट चेहरे, निर्जीव पथ राई आंखे, सूकड़ा सिमटा जीवन एक सड़े पोखरे की तरह। नींद और तमस मे चलते आदमी को देखो तो आप भयभीत हुये बिना नहीं रह सकोगे। गोया ये मुर्दा लोगे चार कंधों पर न चल कर अपने दो पैरो पर चल नहीं रहे है,जीवन के दैनिक कार्य भी बड़ी सहजता से उसी तंद्रा मे किए चले जाते है।
गाँव की जमीन सालों पहले अंग्रेंजी ने अधिग्रहण कर ली थी। उस पर फायरिंगरेन्ज बनाने के बाद मीलों खाली जगह पड़ी रह गई थी। उसको बोने जोतने के लिये गाँव वालो को बटाई पर दे दिया था। इस कारण सालों तक गाँव के लोगो को ये भान तक नहीं हुआ की हमारी जमीन नहीं रही। गोलियां चलती तब फौजी लाल झंडी लगा कर बैठे रहते परन्तु ये सब फर्ज अदायगी ही समझो, गोलियां चलती रहती बच्चे बेर खा रहे होते, जिसने खेतों मे काम करना हो काम करता, न गोली से कोई डरता था, न गोली किसी को कोई नुकसान पहुँचाती थी। समतल जमीन के पास जो उँची पहाड़ी थी, उस पर गाँव बसा था। जहाँ तक नजर दौड़ाओं सपाट मैदान, दूर दराज खेतों के किनारे उगते नीम, शीशम, पीपल के विशाल पेड़ छाँव और आराम के लिए थे। खेती की जमीन के बीच से काट कर गुजरता गहरा बरसाती नाला था। जिसके दोनो किनारों पर खूब घनी डाब, शीशम और रोझ के पेड़ उगे हुए थे। बरसात के दिनो मे उसका ऊफ़ान और बैग़ देख ह्रदय दहल जाता, पूरी पहाड़ी ढलान के रिसाव का पानी नाले से होकर जमना नदी मे लीन होता था। अगर बरसात नाले के उस किनारे पर रह गये मजबूरन आपको घण्टों वही इन्तजार करना पड़ेगा। चरते जानवर भी जब उस पार रह जाते तो हिम्मत नहीं करते थे उसमे उतरने की आदमियों की क्या बिसात। आस पास ऊगी घास-पात, झाड़-झक्काड़़ ही मिट्टी के कटाव को बचाये हुऐ है, वरना तो अब कितनी खेती की जमीन को निगल गया होता। पहाड़ी पर खड़े हो कर खेतों के बीच से गुजरते नाले की आड़ी-तिरछी हरियाली की छोटी होती लकीर मन को मुग्ध कर देती थी। खेतों के उस छोर पर घने पेड़ो का जंगल शुरू हो जाता था। वहीं गाँव की पुरानी खंडर नुमा टूटी-फूटी हवेली थी, वहीं मीठे पानी का कुआँ था, जो आज भी गांव के पीने के पानी का एकमात्र सहारा है। एक ज़र-ज़र बाँध की दीवार जिस पर जंगली पेड़ पोघों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है, कभी खेतों की सिचाई के लिये बनवाया होगा उसके वो खन डहर ही विशालता की गवाही दे रहे थे। कितना सम्मन और खुशहाल होगा ये गाँव जो बाँध बनाने मे भी सक्षम था। दादा भाई याँ जो गाँव के पूज्य देवता थे, उनका लिए बना वो मन्दिर,जो मन्दिर ने कह कर अगर शिवालय कहे तो ज्यादा ठीक होगा, उसमे कोई मूर्ति स्थपित नहीं थी, आज भी अपनी भव्यता और शान को दर्श रहा था। चारो तरफ़ उगे पेड़ो के घने झुरमुट की छाँव, जंगली पक्षियों का चहचहाना वहाँ की शान्ति को और भी नीरव कर गहरा देता था। न जाने किस आपदा-मुसीबत मे गाँव वालो ने ये जगह छोड़ मीलों दूर पहाड़ी पर जा बसे, शायद जंगली जानवरों का भय या बाढ़ की मार रहीं होगी। गहरी खाई उबड़ खाबड़ पगडंडी, कटि ली जंगली झाड़ी और सीधे खड़े चिकने पत्थर के कष्ट कारक रास्ते थे गाँव मे पहुचने के लिये।
सालों से रोजाना आने-जाने के कारण ये रास्ते, बच्चे, बूढ़े, और तों और पशुओं के आदि हो गये थे, लेकिन जब कोई मेहमान आता तो यहीं रास्ते उसके लिये दुर्गम हो जाते थे।
बरसाती पानी के बहाव से जब मिट्टी का कटाव होता, तब रास्तों मे नुकीले पत्थर निकल आते थे। आते-जाते बच्चे ही नहीं बड़े-बूढ़े भी उन से ठोकर खा उन्हे कोस-कास कर आगे बढ़ जाते, अगर नहीं बढ़ते केवल वह थे दादा भोला। सालों से उनका ये नियम था, घण्टों बैठ कर रास्ते का एक-एक पत्थर निकालते रहते थे। श्याम को खेतों से लोटते हुये किस तन्मयता और लगन से वो ये काम करते हुए जब मैं उन्हें देखता तो अभिभूत हो निहारता रहता था। एक दिन छुपा के छोटी सी हथौड़ी उनके साथ काम करने लगा परन्तु मन मे झिझक, श्रम की कोई देख तो नहीं रहा है। आते जाते लोगो की राम-राम चलती रहती दादा भोला के चेहरे पर ना कभी कोई शिकन न शिकायत, केवल एक उत्सव भाव झरता गीतों की तान से। वो जब भी कोई काम कर रहे होते, हमेशा मधुर गीत-गाते रहते थे। पत्थर वो मुझे नहीं निकालने देते थे, कहते--’’ बैटा उँगली मे चोट लग जायेगी तुम्हारी उंगली अभी कच्ची है।’’ मैं उनके निकाले पत्थर उठा-उठा कर रास्ते से हटाता रहता था। इतने छोटे बच्चे के मन मे अंहकार है, जबकि अभी तो वो ना कुछ ही है, फिर दादा भोला के मन मे क्यों नहीं। दादा भोला किस उत्सव, लगन, तन्मयता के भाव से आनन्द विभोर हो काम करते थे, सालों उलझी इस गुत्थी को मैं सुलझा पाया, जब बुलाकी राम (बुल्ला शाह) को जाना। उसकी मस्ती, गीत, आनन्द, बुल्ला शाह का ही बीज़ रूप भोला दादा में वक्ष बनने की तैयार कर रहा था। उसका काम करना ऐसा लगता जैसे कोई कलाकार अपनी पूर्णता को पृथ्वी पर ऊरेर रहा हो। शायद यहीं प्रक्रिया प्रकृति आईना बन प्रतिध्वनि की तरह लोटती सी प्रतीत नही होती हम सभी के साथ, जो हमारा है हम पर नहीं लौट आता है। प्रकीर्ति केवल कर्ता भाव लिए खड़ी रहती है,मूक, मुस्कराती हुई।
पृथ्वी, जल, प्रकाश के सान्निध्य मे एक पेड़ अपने को पुर्ण करता है, इठलाते पत्ते, मुसकुराते फूल, लद्दे फल, चहकते हुऐ पक्षी क्या इसकी पूर्ण होने के साक्षी नहीं है। पूछो इन तत्वों से तो कैसे कन्धे मचका कर अवाक, विस्मय, अनजान भोले बालक की तरह कहेंगे भला हमने क्या किया है, हम तो मात्र केवल थे। यही है होने का भाव, पूरी सृष्टि मे जहाँ तक आप देखेंगे, कण-कण मे यही पूर्णता पाओगें। भोला दादा न किसी के हँसने की परवाह करते थे, और न किसी की शाबासी का इन्तजार। यही मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा है वो करता होना चाहता है, लेकिन वो है नहीं, एक मूर्ति कैसे रचयिता हो सकती है, जबकि वो खूद ही एक रचना है, किसी अदृष्य हाथों की।
मैं जब उनके संग-साथ होता तब मुझे लगता कि कुछ ज्यादा जीवित, अधिक प्राणवान हूँ, मेरे मन का जल स्तर कुछ ऊचां हो जाता, जैसे भरे बर्तन मे कोई होश का ढ़ेला डाल दे, तब बर्तन को यकीन न आये कि कैसे वो किनारों तक भर कर छलक गया। मेरे मन मे प्रश्नों की एक रेल दौड़ ने लग जाती थी। कैसे एक बुद्ध पुरूष हमारे पूरी उम्र अर्थहीन प्रश्नों के ऊत्तर देते रहते है। शायद ये प्रश्न भी उन्ही के सान्निध्य मे उगते हो, बरसाती कुकर मूतों की तरह। या उनकी स्तेयी चेतना का प्रभाव हो, जो हमारे गहरे तल तक के प्रश्नों को बहार निकाल देते है। ऊपर खड़े बालटी डाल झिकझौंड़ते ही रहते है। हम एक कंजूस कुएँ की तरह कूड़े-करकट को ही अपना सर्व सब समझ सम्हालते रहता है, फिर सड़ना तो उसकी नियति है ही।
मैं--’’दादा आप इन पत्थरों को क्यों निकालते रहते है, कोई और तो नहीं निकालता आपके साथ।’’
दादा--’’बैटा आते जाते को ठोकर लगती है, पशुऔ के पैरो मे चुभते है। बोझा लेकर आती बहू-बेटियों, अगर उन्हे ठोकर लग गई तो कितनी चोट लग जायेगी। फिर मे भी तो बूढ़ा हूँ, मुझे भी तो ठोकर लग जाती है। रास्ते जितने साफ-सुथरे होगें जिस गाँव के वहाँ आने वाले लोग जान जाएँगे यहाँ किस तरह के लोग रहते है। औरत के पेर की फटी बिवाई याँ ही उसके सूहड़-फूहड़ पन का राज खोल देगी, चेहरा देखने की जरूरत ही नहीं है।’’
मैं--’’दादा आपको झिझक नहीं आती, ठोकर तो पूरे गाँव भर को लगती है। आप अकेले क्यों निकालते है।’’(मैरा चेहरा लाल हो गया गुस्से के)
दादा--’’अब तुमने कह दिया है अकेला नहीं निकलुगा (मुस्कुराए कर) फिर अकेला मैं हुँ भी नहीं मेरा शेर मेरे साथ है। उन लोगो के पास समय नहीं होगा, फिर जो आपको अच्छा लगे उस के लिए किसी का इन्तजार मत करो, न देर करो वरना उसे कभी कर नहीं पाओगें। फिर आप करता का भाव मन मे रखेंगे तो वो काम हो गया, काम से तो थकान महसूस होगी, आपकी जीवन धारा की लय को छिन्न-भिन्न कर देगी, और खेल भव उसमे ताजगी, जीविन्तता तुम्हारे खालीपन को भर प्राणवान बना देगा। देखो ये संसार का विस्तार क्या कोई रच सकता हैं इस रचना को, जब तक खुद रचयिता ही रचना मे सर्व सब हो एक न हो जाये। जब हम करता होते है तो हम दुर.....(और वो हँस पेड़) तू भी कैसा ज्ञानी बान हाँ-हुँ कर रहा था।’’
मैं--’’दादा ये सब मुझे बहुत अच्छा लगता है, आपकी वाणी अन्दर तक छू कुछ कहने लगती है। शब्दों को चाहे पकड़ न पाऊँ,पर मुझे लगता है ये सब मैं जानता हुँ।’’
दादा भोला की वाणी ने मुझे अन्दर तक तृप्त कर गया, चाहे वाणी उसका विवेचन न कर पाये परन्तु ह्रदय उससे सराबोर हो रहा था। आदि काल मे जब भाषा का विकास नहीं हुआ था, तब कैसे मनुष्य अपने भावों, विचारों, का आदान प्रदान करता था। क्या शब्द कभी अधूरे नहीं रह जाते, आप जब कहे चुके होते तब आपको लगेगा, जो कहना चाहा वो तो अभी अन्दर ही कैसे छटपट रहा हे, बेजान शब्द केवल निकल रहे हे। एक बुद्ध पुरूष भी इन्ही शब्दों का इस्तेमाल करता है, निर्जीव, प्राणहीन शब्द उसके अन्तस की गहराई को छू के कैसे चेतन-अचेतन की दीवारों को धकेल कर तुम्हारे रोए-रोए मे समा जाते है। उनके संग-साथ होना कैसे न होने जैसा होता था। इस स्थूल शारीर का भी भार है हमारे होने मे, कभी नितान्त अकेले अन्तस मे
पहली बार जब को ई जाता है। वह अपने शारीर को दूर क्षितिज के पार देख रहे होता है, और आपको अपने पुर्ण होने का अहसास होता है शारीर के बिना भी , कैसे खीलें पन का बिना किसी बन्धन के कैसा निर्भरता महसूस होती है। वो अनुभव पहली बार इस काया की पकड़ उसकी भार तत्त्वता का बौध तुम्हारी जीवन शेली अमूल परिर्वतन भर देगी।
उनके संग-साथ होना कैसे न होने जैसा लगता था। मेरे हम उम्र भी मुझे दादा भोला कह कर चिढ़ाते थे। मुझे अपने हम उम्र बच्चो की न तो बातें रुचिकर लगती थी, न उनके खेल, छिछोरा स्तरहीन, उथले बिना सर पैर कि लगती थी। खेतों में जब काम नहीं होता जब भी दादा भोला जंगल में ही हो एक दो भैंसे, दो एक बैल, तीन-चार गायें, उन्हे खेतों मे चराते रहते थे। कोई भी बहती गंगा में हाथ धो लो सब के लिए छुट थी, जब कोई कहता दादा ये भेस उसकी है, ये गायें इसकी है, वो केवल मुसकुराते आँखो में एक भाव होता की मैं जताता हुँ, कभी किसी को मना नहीं करते थे। गर्मी के मारे भैंसे तो तलाव में घुस जाती, परन्तु गायें या बैल पानी से बहुत बिदकते थे। वो चरते आगे बढ़ जाते तब दादा भोला को मेरी उपयोगिता पता चलती, मुझे तो पानी में घुसने का बहाना चाहिए था। तब मैं दादा भोला की भेस के साथ अपनी भेस को मलमल के खूब नहलाता, हमारी भैंसे भी तो उन्हीं भैसो में चरने आ जाती थी। फिर वो किसी छाँव दार वृक्ष के तने की टेक लगा बाँसुरी बजाने लग जाते। जब मैं उन भैसो का मुँह पानी से रगड़ कर धोता कैसे लम्बी-लम्बी उसास छोड़ती, हवा के साथ पानी की महीन बुंदे कैसे मेरे मुँह को भिगो जाती थी। दुर बाँसुरी की मधुर तान के साथ भेस कैसे गर्दन हिलाती मानो प्रत्येक सुरों का ही नहीं राग बौध भी है, नाहक तुमने मुहावरा बनाया ’’भेस के आगे बीन.....’’ बीन की बात ही मत करो हम तो बाँसुरी पर ही नहीं अटके कहो तो सितार के सुरों को बता दे, कौन, कण, मीड़, मुर्की.. लगाई है, कौन सुर विवादी है जिससे बचना है। पर मैं देखता भेस की अकल में तो क्या आना था, उनपर कोई असर भी नहीं हो रहा था। बांसुरी की तान तालाब की लहरों से टकरा कर, पूरे वातावरण को संगीत मय कर देती थी। क्या बजाते थे, पक्का नहीं कर सकता शायद राग केदार भगवान कृष्ण का प्रिय राग हेमंत दा का केदार में भजन ’’ दर्शन दो धन श्याम नाथ मोरी अँखियाँ......’’की धुन रह-रह भोला दादा के सुरों की याद दिला जाते है।
फागुन का मद मस्त माहौल सरदी गर्मी की रसा कसी से शरीर मे मादकता के साथ उन्माद भर लाती थी। आप सावन की मादकता की छुअन नन्हे चमकदार पत्तों पर ही नहीं, पलास और सेमल के फूलों तक पे महसूस कर सकते है। औरतों मे तो सावन ऐसे सिहर-सिहर कर हिलोरे मारता है, उम्र के बन्घनों के सभी तट बन्द तोड़ देना चाहते है। श्याम का झुटपुटा होते न होते गाँव की औरतें चौपाल के बड़े चौक में इकट्ठी होने लगती थी। साठ से लेकर सात बरस औरतें लड़कीयों में बस शरीर का ही भेद रह जाता था, वरना उनके अन्दर से छलक़ता बचपन, अल्हड़पन, अठ हास, हंसी मजाक एक हो जाता था। मैं देखता किसी ६० वर्ष की प्रौढ़ में भी उसका बालपन कैसे रौएं-रेसे से रिस-रिस के बह रहा होता था। फिर न उसे प्रोत का अहसास होता और न लडकपन का दोनों इस प्रकार समतुल्य हो जाते की भेद जानने के लिए ध्यान को चेहरे पर ले जाना पड़ता दादी कौन पोती कौन है। उनका हंसी ठिठोली करना एक दूसरे को छेड़ कर किलकारी मार-मार कर भागना अस्मरणीय है। अगर इस बीच दादा भोला के बीना भी कोई महफिल मानो बीन सूर के साज, बीन तान के नाच हो सकता हे, दादा भोला के आने से महफिल मे शबाब ही नहीं फूलों मे सुगन्ध भर जाती थी। दादा भोला का उन बाल योवनाऔ के बीच मदमस्त हो कर नाचना,ढोल मंजीरों के साथ ताली बजा के गाना इस लोक का दृश्य नहीं लगता था। सब बहु-बेटियाँ अपनी उम्र नाता, घूंघट को भूल इस नृत्य में विलीन हो जाती थी। कुछ ही देर में ऐसा शमा बँधता न नृत्य और नृत्यकार एक हो जाते, शायद यहीं है वो रस जो अतिशय होते-होते रास बन जाता है।
दादा भोला के इस तरह गाँव की बहु -बेटियों के साथ नाच ना , घूंघट पर्था, जहाँ बहु ससुर-जेठ के सामन े बोलती तक नहीं घूँघट में ६०-७० साल की और तें छुपी रहेगी। मनुष्य की चेतना के उतंग आया मों को उन भोले-भाले देह ाती से दिखने वालो के अन्दर कहीं छीपा होगा। गाँव के बुर्जुगों केवल गर्दन मचका कर हंस देते और पगला, या दीवाना की उपाधी दे आगे बढ़ जाते। न कोई बूरा मानता न नाराज होता, आप अपने अन्तस की गहराई से ही सामने वाले की गहराई को समझ सकते हो, और तो कोई पैमाना नहीं, क्या चरित्र है, क्या सोच हे आपकी, सौ बातों की एक बात ’’चौरों को सार े नजर आते है चौर’’। आज मनुष्य का मन कितना जटिल है, वो लोग कितने सरल और महान थे । दादा भोला न जब अपनी घर गृहस्थी नहीं बसाई तो फिर वो एक परिवार की सीमा में कैसे समाता, पूरा गाँव ही उसकी घर परिवार इस लिए कहूँगा दिल्ली से बहार कभी गया ही नहीं, वरना तो ऐसे इंसान के लिए देश क्या ये पृथ्वी भी छोटी पड़ती। जब कोई गाँव में त्योहार होता तो सब नम ्बर से दादा भोला को निमंत्रण करते थे, किसी की हारी बिमारी हो, खेत क्यार का कोई काम , किसी का मकान गिर गया हो, भेस, गाय चरानी हो दादा भोला बिन बुलाए हाजिर। एक दीपावली पर हमारे घर भोजन करने आया था दादा भोला, मैं कैसे फूला नहीं समा रहा था दादा भोला हमारे घर आज आयेगा, यहाँ बैठेंगे, माँ क्या खाने को बनाएगी, मैने अपनी माँ के सार दिन कान खा लिए। रात जब खाना खान के लिए दादा भोला आया तो माँ ऐसे खाना परोस रही थी मानों कोई भगवान को भोग लगा रहा हो। साल मे त्योहार-बार को छोड़ कर दादा भोला अपने छोटे भाई के घर खाना खात ा था जिसके साथ वो रहता था।
उस दिन जेष्ठ की बुद्ध पुर्ण मासी थी। गाँव के लिए विशेष दिन होता, अब बुद्ध भगवान से क्या सम्बन्ध है, परन्तु गाँव जब से बसा है ये दिन विशेष उत्सव की तरह होता था। एक तो गाँव का वो शिवाला जिसमे कोई मूर्ति नहीं, दूसरा ये पूर्णिमा,जो भगवान बुद्ध के अनुयाइयों के लिए महोत्सव है, इसी दिन भगवान का जन्म, ज्ञान और मृत्यु तीनों एक ही साथ घटे थे। उस दिन पुरा गाँव, गाँव न रह कर मेले, उत्सव में बदल जाता था। उस दिन प्रत्येक गाँव का पुरूष, स्त्री, बच्चे कहीं मीलों दूर से भी गाँव पहुँच जायेंगे, यानि गाँव की एक-एक संतान जो भी इस मिट्टी से कोई भी सम्बन्ध है इस दिन यहाँ आप उसे देख
सकते है। गांव की बहु, बेटियाँ, नए कपड़े पहन ऐसे छम-छम कर इठलाती चल ती, को ई शादी विवाहा में भी क्या चलती होती हाँगी। रंग ी पोशाकें पहने जवान होती लड़कियाँ गलियों मे भागती ऐसे लगती तितली याँ उड़ रही हो। माँ लाख शोर मचाती पूरियाँ सहज कर घर दी प्रसाद का सब सामान परात में रख लिया, हाँ, हुँ, भर पास पड़ोस की सहेली यो, भौजाइयों को अपने गहने कपड़े दिखाने है, उनके टीका, गल सरी, कोनों के कर्णफूल... आज बहु शादी मे मिले सारे गहने पहनती। यही तो औरतों के जीवन मे दो चार दिन आते पहनने औढ़ने के वरना तो वहीं चक्की चुल्हा ही नही साँस लेने की फुर्सत देता। घर-घर पकवान बन रहे होते, गरीबों का कोई उत्सव मेल ा हो वो कैसे सुन्दर पकवान बनाते, सामर्थ्यवान व्रत, उपवास रखते है। अजीब विरोधाभास लगेगा, परन्तु यही है जीवन की जटिलता आप इसे देखो, इसकी नीव में गए नहीं की आप गये काम से। गाँव से दादा भैया की मढ़ी करीब दो कोस तो होगी ही। गहने, कपड़े, सर पर प्रसाद की परात, गीत गाती औरतों को मानो गर्मी से कोई लेना देना ही न हो, तपती रेत पर दौड़ते बच्चे पसीने से सराबोर हो रहे होते, कबूली कीकर की हरा रंग इस बरसती आग में भी आँखो में ही नही अन्तस तक को शान्त कर जाता था। दादा भैया के पास बड़े-बड़े पीतल के कनाल भर कर ठंडा शरबत बनाया होता था। मील भर की तपती आग के बाद बही अमृत तुल्य जीवन दायिनी लगता। गुड़-गुलगुलो का प्रसाद चढ़ता, घर के बने भोजन का भोग चढ़ाया जाता। सब हंसते गाते घर की तरफ़ चल देते, अब घर बने पकवानों की खुशबु ही नहीं मुँह स्वाद के इन्तजार में पानी से भर-भर जाता, बच्चो को लाख मना करो मत दौड़ो जब तक एक आध बच्चा रेत में गिर कर धूलिया-धमाल न हो जाता तब तक चेन नहीं लेते। पसीने से सराबोर कपड़े पर जब बालू का महीन रेत, मुँह और कपड़ो पे लिपट जाता न कपड़े की पहचान न चेहरे की बच्चा न हो कोई भूत, दूसरे बच्चे मुँह छुपा कर हँसते। अब कोन उठाये इस भूत को न उठाए तो चुप न हो। झाड़ पोंछ कर किसी तरह राजी किया जाता घर के पकवानों की याद दिलाई जाती तब कहीं शाही सवारी चलन े को राजी होती थी।
दोपहर ढ़ल गई थी, सुर्य का उफान कुछ कम होने लगा था,अचानक खबर आई दादा भोला को गोली लग गई। पुरा गाँव सुना हो गया, चील वाली के पार एक शीशम के पेड़ के नीचे बैठे बांसुरी बजा रहे, गोली पेट के आर पार निकल गई थी। दादा भोला आदमियों से धीरे थे, सारे कपड़े और जमीन खून से सराबोर थी। मैं भी किसी तरह से अन्दर पहुँचा, पेट के आस पास किसी ने कपडा लपेट कर खून बन्द करने की कोशिश भी कर रखी थी। दादा भोला ने मुझे देख अपने पास बुलाया उनकी आँखो में जीवन निर्मल झील की तरह भर था, आज चालीस साल बाद भी वो आँखें मैं भूल नहीं पाया। चेहरे पर वहीं माधुर्य, टपकती हँसी ,इतना शान्त की पीड़ा संताप की कोई लहर नहीं। शायद जीवन की झील आज अपनी पूर्णता पे अपने सौम्यता के उत्तुंग पर पहुँच स्फटिक दर्पण बन गई हो। अपने हाथ की बांसुरी मेरे हाथ में देते हुऐ बस इतना ही कहाँ ’’बजाना एक दिन बजेगी’’ सब हास्पिटल ले जाने के लिये बेल गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। दादा भोला ने मना कर दिया ’’अब मैं जाऊँगा, कोई भूल चूक हो तो माफ़ कर देना’’ दोनो हाथ जोड़ और आंखे बन्द कर ली मानों सो गये। जमीन का गुरुत्वाकर्षण इतना सधन हो गया, सब कुछ देर लिए पत्थर हो गए, रोना हीलना सब जड़ वत हो गया कुछ क्षणों के लिए।
दादा भोला चले गए, उन पेड़ पौधों, पहाड़ी रास्तों, तालाबों, गाँव की गलियों,पशु पक्षियों से कहने की कोन हिम्मत करे, जब भी इन से गाँव के किसी प्राणी का सामना होता तो वह ड़ब-ड़बाई आँखो को छुपाने के लिए मुँह फेर लेता। समय के साथ आदमी बदले, आज बच्चे जानते भी नहीं कोई दादा भोला नाम का प्राणी भी यहाँ हुआ ही नहीं, प्रेम, श्रद्धा की सांस-सांस जिया था। दादा भोला की वो बांसुरी आज भी उस शीशम, पीपल के पास बैठ कर बजाता हो तो लगता है हाथों पर पानी की कोई बूंद गिरी, आँख खोल जब उपर देखता हुँ तो वो सजल नेत्रों से पूछने की कोशिश कर रहा है, क्या प्रकृति इतनी संवेदनशील है, कैसे नृउत्तर से, अविचल, थिर, यादों को अपने अन्दर समेटे, सरदी, गरमी, बरसात, में अड़ी खड़े पूर्णता से जीता रहता है। शायद मनुष्य ने अपनी जड़े प्रकृति से काट ली है, अब उसकी नियति केवल सूखने की है। वो विज्ञान के लहलहाते फलो,पत्तों रूपी सुविधा से अभी भूत है, वो इतना भी शायद नहीं जानता पत्तों को सींचने से वक्ष में जीवन लहलहाते नहीं होता उन अदृष्य जड़ो के अन्धकार में कहीं जीवन छुपा है।
जब-जब बूल्लाशाह की काफिया को सुना, उनके जीवन को उन तरंगों, ध्वनियों, एक अटूट कड़ी की तरह बहते पाया, जिसका न आदि है न कोई अंत।
मनसा आनंद ‘मानस’
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