कल
जब मैंने पूछा
उस
हठीले गर्बीले
ज़हरीले
केकटस से
तुम
कैसे करते हो निर्णय
फूल
और कांटों के बनाने में
कैसे
कर पाते हो
संतुलन
और विभेद तुम दोनों में
तब
वह कुछ चौंका
तब
उसने मेरी और देखा
शायद
उसने कुछ सोचा
और
फिर यूं बोला
क्या
है भेद इसमें
जो
मांग है तुम्हारी
बस
वहीं तो इति
और
में नहीं होता कर्ता
बस
देखता हूं इस सब को
मैं
तो बस होता हूं मात्र
कर्ता
का पता नहीं है मुझे
होने
की कला जान गया हूं
क्या
तुम नहीं जानते?
फिर
तब तुम कैसे जी पाते हो?
दम
नहीं घुटता होगा तुम्हारा
नित
कर्ता बन-बन कर
क्यों
उठाते हो तुम इतना भार
नाहक
जमाने-जहान का
छोड़
कर देखें जरा अपने को
उस
अंजान के हाथों में
तब
देखना एक दिन
तुम्हें
आयेगा जीने का आनंद
तब
बहोगे तुम धार में
कितनी
सरसता-मधुरता
लिए
होगा वह जीवन
देखो
फिर तुम्हारे चारों और
सब
कुछ घटता रहता उसी तरह
पर
कर्ता कोई और होगा
तुम
हो मात्र साक्षी
और
नाहक भ्रम का बोझ ढोये जा रहा थे......
कर्ता
बन कर।
स्वामी
आनंद प्रसाद ’’मनसा’’
👌👌👌
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