अचौर्य—(प्रवचन—तीसरा)
3
सितंबर 1970,
षणमुखानंद
हाल, मुम्बई
मेरे
प्रिय आत्मन्,
हिंसा
का एक आयाम
परिग्रह है।
हिंसक हुए
बिना परिग्रही
होना असंभव
है। और जब
परिग्रह विक्षिप्त
हो जाता है, पागल हो
जाता है, तो
चोरी का जन्म
होता है। चोरी
परिग्रह की
विक्षिप्तता
है, पजेसिवनेस दैट हैज गॉन मैड।
स्वस्थ
परिग्रह हो तो
धीरे-धीरे
अपरिग्रह का
जन्म हो सकता
है। अस्वस्थ
परिग्रह हो तो
धीरे-धीरे
चोरी का जन्म
हो जाता है।
स्वस्थ परिग्रह
धीरे-धीरे दान
में
परिवर्तित
होता है, अस्वस्थ
परिग्रह
धीरे-धीरे
चोरी में
परिवर्तित
होता है।
अस्वस्थ
परिग्रह का
अर्थ है कि अब
दूसरे की चीज
भी अपनी दिखाई
पड़ने लगी, हालांकि
दूसरा अपना
नहीं दिखाई
पड़ता है। अस्वस्थ
परिग्रह का
अर्थ है, वह
जो इनसेन पजेसिवनेस
है, वह
दूसरे को तो
दूसरा मानती
है, लेकिन
दूसरे की चीज
को अपना मानने
की हिम्मत करने
लगती है। अगर
दूसरा भी अपना
हो जाये तब
दान पैदा होता
है। और जब
दूसरे की चीज
भर अपनी हो
जाये और दूसरा
दूसरा रह जाये
तो चोरी पैदा
होती है।