भोला एक नाम ही नहीं, चलते फिरते शरीर मैं एक व्यक्तित्व की कोमलता, गरिमा, माधुर्य उसके पोर-पोर से टपकता ही नहीं झरता था। मनुष्य की मनुष्यता, मानस्विता, महिमा या गरिमा उसके दैनिक छोटे बड़े कार्यो मे देखी जा सकती थी। उसकी विशालता को मैने अंतिम चरण मे एक बूढे होते वृक्ष के, क्षण-क्षण बढ़ते सौन्दर्य की तरह जाना था। फिर चाहे उसकी विशाल लता का खुरदरापन कितना ही उबड़-खाबड,रूखा और आकर्षणहीन हो, उसका सौन्दर्य केवल उसकी कोमलता ही नहीं बखानती, उसकी पूर्णता उसके पल्लव-पल्लव से टपक कर, झूमती लता पर इठलाते हुये पत्ते खुद-ब-खुद कह रहे थे।
रंग का साँवला, साधारण फूली नाक, परंतु मुहँ के हिसाब से कान अधिक बड़े, बोलती काली गहरी आँख, सफ़ेद कंधे तक लहराते केश, जो माथे के काफ़ी ऊपर तक उड़ गए थे। लगता किसी हिमा छादित पर्वत के सौन्दर्य को पूर्णता देने के लिए ही थे। कई बार ऐसा भ्रम होता पर्वत की सुंदरता उसकी विशाल ऊंची चोटियों के कारण थी, या उसपर बिखरी धवलता के कारण गर्वित हो रही थी। खेतों में हल चलाते हुए, मंद्र लय से आगे चलते बैल, पीछे चलती बगुलों की कतार, जैसे बादलों को कोई धरा पर संग साथ लिए चल रहा हो। रोझ की छाँव मैं होठों पर लगी मुरली से छिटकती तानों के समय, सूर्य की सिमटती लाली भी ठहर जाना चाहती थी। मानो वह दिन भर की थकान को बाँसुरी के सुरों में समेट कर अपने को ही ताज़ा नहीं कर रहा, पूरी प्रकृति को ही सहला-सुला रहा था। लगता क्षणिक समय की गति रूक गई हो, औरते-बहुँये सर के बोझ को भूल विमुग्ध सी, मुहँ मैं पल्लू दबाए खड़ी रह जाती थी। गायें-भैंसे ऐसे मूर्तिवत अवाक खड़ी हो जाती कि मुहँ की घास को चबाना ही भूल जाती, पक्षियों का चहकना, बहते पानी का कलरव, या हवा की गति कुछ देर के लिए विषमय, विमुग्ध हो ठहर जाती थी। फिर चारो तरफ़ नीरव शान्ति गहरा जाती, जिससे पत्ते भी अपनी अठखेलियाँ करना भूल जाते थे।
बचपन मे जो छवि, मेरे बाल मन ने भोला दादा की देखी थी। वो मेरे अवचेतन के गहरे मे कहीं मूर्ति रूप बन बैठ गई थी। समझ बढ़ने के साथ-साथ वो महान से महानतम हो गई। उसकी गरिमा, गौरव इस विशाल नीले आसमान मे इतना बड़ा हो गया, की चाह कर भी उस अदृश्य छोर को ना जान सका। छोटा सा गाँव, गिनती के घर, थोडे से आदमियों से भला कोई काम चलता है। सोचते थे भई गाँव तो तभी पूर्ण होगा जब प्रत्येक जाती धर्म का इसकी शोभा बढ़ा ये। दूर-दराज कहीं से अन्य जाती का आ जाये बसने के लिये, उसे रहने को धर, बोने जोतने को खेते देते, पूरा गाँव उसके दुख-दर्द मे हमेशा तैयार रहता था। आज भी गाँव का पहला मकान नम्बर(ज़्झ्-१) वो एक बाल्मीकी परिवार का है। आज आबादी की भीड़ ने अपनत्व और प्रेम को किसी कोने मे धकेल दिया लगता है। कैसे प्रेम टपकता था, लोगो की आँखो और जबान से, जैसे महुआ से झरता रस जिसके अतिशय को रोकना चाह कर भी नहीं रोक पा रहा हो। फूल खिलने के बाद क्या अपनी गंध को रोक-समेट सकता है अब फैलने से,ठीक ऐसे ही खीला हुआ मनुष्य कैसे रोके अपने प्रेम को। आज गज़ भर लम्बे लटकते सपाट चेहरे, निर्जीव पथ राई आंखे, सूकड़ा सिमटा जीवन एक सड़े पोखरे की तरह। नींद और तमस मे चलते आदमी को देखो तो आप भयभीत हुये बिना नहीं रह सकोगे। गोया ये मुर्दा लोगे चार कंधों पर न चल कर अपने दो पैरो पर चल नहीं रहे है,जीवन के दैनिक कार्य भी बड़ी सहजता से उसी तंद्रा मे किए चले जाते है।
गाँव की जमीन सालों पहले अंग्रेंजी ने अधिग्रहण कर ली थी। उस पर फायरिंगरेन्ज बनाने के बाद मीलों खाली जगह पड़ी रह गई थी। उसको बोने जोतने के लिये गाँव वालो को बटाई पर दे दिया था। इस कारण सालों तक गाँव के लोगो को ये भान तक नहीं हुआ की हमारी जमीन नहीं रही। गोलियां चलती तब फौजी लाल झंडी लगा कर बैठे रहते परन्तु ये सब फर्ज अदायगी ही समझो, गोलियां चलती रहती बच्चे बेर खा रहे होते, जिसने खेतों मे काम करना हो काम करता, न गोली से कोई डरता था, न गोली किसी को कोई नुकसान पहुँचाती थी। समतल जमीन के पास जो उँची पहाड़ी थी, उस पर गाँव बसा था। जहाँ तक नजर दौड़ाओं सपाट मैदान, दूर दराज खेतों के किनारे उगते नीम, शीशम, पीपल के विशाल पेड़ छाँव और आराम के लिए थे। खेती की जमीन के बीच से काट कर गुजरता गहरा बरसाती नाला था। जिसके दोनो किनारों पर खूब घनी डाब, शीशम और रोझ के पेड़ उगे हुए थे। बरसात के दिनो मे उसका ऊफ़ान और बैग़ देख ह्रदय दहल जाता, पूरी पहाड़ी ढलान के रिसाव का पानी नाले से होकर जमना नदी मे लीन होता था। अगर बरसात नाले के उस किनारे पर रह गये मजबूरन आपको घण्टों वही इन्तजार करना पड़ेगा। चरते जानवर भी जब उस पार रह जाते तो हिम्मत नहीं करते थे उसमे उतरने की आदमियों की क्या बिसात। आस पास ऊगी घास-पात, झाड़-झक्काड़़ ही मिट्टी के कटाव को बचाये हुऐ है, वरना तो अब कितनी खेती की जमीन को निगल गया होता। पहाड़ी पर खड़े हो कर खेतों के बीच से गुजरते नाले की आड़ी-तिरछी हरियाली की छोटी होती लकीर मन को मुग्ध कर देती थी। खेतों के उस छोर पर घने पेड़ो का जंगल शुरू हो जाता था। वहीं गाँव की पुरानी खंडर नुमा टूटी-फूटी हवेली थी, वहीं मीठे पानी का कुआँ था, जो आज भी गांव के पीने के पानी का एकमात्र सहारा है। एक ज़र-ज़र बाँध की दीवार जिस पर जंगली पेड़ पोघों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है, कभी खेतों की सिचाई के लिये बनवाया होगा उसके वो खन डहर ही विशालता की गवाही दे रहे थे। कितना सम्मन और खुशहाल होगा ये गाँव जो बाँध बनाने मे भी सक्षम था। दादा भाई याँ जो गाँव के पूज्य देवता थे, उनका लिए बना वो मन्दिर,जो मन्दिर ने कह कर अगर शिवालय कहे तो ज्यादा ठीक होगा, उसमे कोई मूर्ति स्थपित नहीं थी, आज भी अपनी भव्यता और शान को दर्श रहा था। चारो तरफ़ उगे पेड़ो के घने झुरमुट की छाँव, जंगली पक्षियों का चहचहाना वहाँ की शान्ति को और भी नीरव कर गहरा देता था। न जाने किस आपदा-मुसीबत मे गाँव वालो ने ये जगह छोड़ मीलों दूर पहाड़ी पर जा बसे, शायद जंगली जानवरों का भय या बाढ़ की मार रहीं होगी। गहरी खाई उबड़ खाबड़ पगडंडी, कटि ली जंगली झाड़ी और सीधे खड़े चिकने पत्थर के कष्ट कारक रास्ते थे गाँव मे पहुचने के लिये।
सालों से रोजाना आने-जाने के कारण ये रास्ते, बच्चे, बूढ़े, औरतों और पशुओं के आदि हो गये थे, लेकिन जब कोई मेहमान आता तो यहीं रास्ते उसके लिये दुर्गम हो जाते थे।
बरसाती पानी के बहाव से जब मिट्टी का कटाव होता, तब रास्तों मे नुकीले पत्थर निकल आते थे। आते-जाते बच्चे ही नहीं बड़े-बूढ़े भी उन से ठोकर खा उन्हे कोस-कास कर आगे बढ़ जाते, अगर नहीं बढ़ते केवल वह थे दादा भोला। सालों से उनका ये नियम था, घण्टों बैठ कर रास्ते का एक-एक पत्थर निकालते रहते थे। श्याम को खेतों से लोटते हुये किस तन्मयता और लगन से वो ये काम करते हुए जब मैं उन्हें देखता तो अभिभूत हो निहारता रहता था। एक दिन छुपा के छोटी सी हथौड़ी उनके साथ काम करने लगा परन्तु मन मे झिझक, श्रम की कोई देख तो नहीं रहा है। आते जाते लोगो की राम-राम चलती रहती दादा भोला के चेहरे पर ना कभी कोई शिकन न शिकायत, केवल एक उत्सव भाव झरता गीतों की तान से। वो जब भी कोई काम कर रहे होते, हमेशा मधुर गीत-गाते रहते थे। पत्थर वो मुझे नहीं निकालने देते थे, कहते--’’ बैटा उँगली मे चोट लग जायेगी तुम्हारी उंगली अभी कच्ची है।’’ मैं उनके निकाले पत्थर उठा-उठा कर रास्ते से हटाता रहता था। इतने छोटे बच्चे के मन मे अंहकार है, जबकि अभी तो वो ना कुछ ही है, फिर दादा भोला के मन मे क्यों नहीं। दादा भोला किस उत्सव, लगन, तन्मयता के भाव से आनन्द विभोर हो काम करते थे, सालों उलझी इस गुत्थी को मैं सुलझा पाया, जब बुलाकी राम (बुल्ला शाह) को जाना। उसकी मस्ती, गीत, आनन्द, बुल्ला शाह का ही बीज़ रूप भोला दादा में वक्ष बनने की तैयार कर रहा था। उसका काम करना ऐसा लगता जैसे कोई कलाकार अपनी पूर्णता को पृथ्वी पर ऊरेर रहा हो। शायद यहीं प्रक्रिया प्रकृति आईना बन प्रतिध्वनि की तरह लोटती सी प्रतीत नही होती हम सभी के साथ, जो हमारा है हम पर नहीं लौट आता है। प्रकीर्ति केवल कर्ता भाव लिए खड़ी रहती है,मूक, मुस्कराती हुई।
पृथ्वी, जल, प्रकाश के सान्निध्य मे एक पेड़ अपने को पुर्ण करता है, इठलाते पत्ते, मुसकुराते फूल, लद्दे फल, चहकते हुऐ पक्षी क्या इसकी पूर्ण होने के साक्षी नहीं है। पूछो इन तत्वों से तो कैसे कन्धे मचका कर अवाक, विस्मय, अनजान भोले बालक की तरह कहेंगे भला हमने क्या किया है, हम तो मात्र केवल थे। यही है होने का भाव, पूरी सृष्टि मे जहाँ तक आप देखेंगे, कण-कण मे यही पूर्णता पाओगें। भोला दादा न किसी के हँसने की परवाह करते थे, और न किसी की शाबासी का इन्तजार। यही मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा है वो करता होना चाहता है, लेकिन वो है नहीं, एक मूर्ति कैसे रचयिता हो सकती है, जबकि वो खूद ही एक रचना है, किसी अदृष्य हाथों की।
मैं जब उनके संग-साथ होता तब मुझे लगता कि कुछ ज्यादा जीवित, अधिक प्राणवान हूँ, मेरे मन का जल स्तर कुछ ऊचां हो जाता, जैसे भरे बर्तन मे कोई होश का ढ़ेला डाल दे, तब बर्तन को यकीन न आये कि कैसे वो किनारों तक भर कर छलक गया। मेरे मन मे प्रश्नों की एक रेल दौड़ ने लग जाती थी। कैसे एक बुद्ध पुरूष हमारे पूरी उम्र अर्थहीन प्रश्नों के ऊत्तर देते रहते है। शायद ये प्रश्न भी उन्ही के सान्निध्य मे उगते हो, बरसाती कुकर मूतों की तरह। या उनकी स्तेयी चेतना का प्रभाव हो, जो हमारे गहरे तल तक के प्रश्नों को बहार निकाल देते है। ऊपर खड़े बालटी डाल झिकझौंड़ते ही रहते है। हम एक कंजूस कुएँ की तरह कूड़े-करकट को ही अपना सर्व सब समझ सम्हालते रहता है, फिर सड़ना तो उसकी नियति है ही।
मैं--’’दादा आप इन पत्थरों को क्यों निकालते रहते है, कोई और तो नहीं निकालता आपके साथ।’’
दादा--’’बैटा आते जाते को ठोकर लगती है, पशुऔ के पैरो मे चुभते है। बोझा लेकर आती बहू-बेटियों, अगर उन्हे ठोकर लग गई तो कितनी चोट लग जायेगी। फिर मे भी तो बूढ़ा हूँ, मुझे भी तो ठोकर लग जाती है। रास्ते जितने साफ-सुथरे होगें जिस गाँव के वहाँ आने वाले लोग जान जाएँगे यहाँ किस तरह के लोग रहते है। औरत के पेर की फटी बिवाई याँ ही उसके सूहड़-फूहड़ पन का राज खोल देगी, चेहरा देखने की जरूरत ही नहीं है।’’
मैं--’’दादा आपको झिझक नहीं आती, ठोकर तो पूरे गाँव भर को लगती है। आप अकेले क्यों निकालते है।’’(मैरा चेहरा लाल हो गया गुस्से के)
दादा--’’अब तुमने कह दिया है अकेला नहीं निकलुगा (मुस्कुराए कर) फिर अकेला मैं हुँ भी नहीं मेरा शेर मेरे साथ है। उन लोगो के पास समय नहीं होगा, फिर जो आपको अच्छा लगे उस के लिए किसी का इन्तजार मत करो, न देर करो वरना उसे कभी कर नहीं पाओगें। फिर आप करता का भाव मन मे रखेंगे तो वो काम हो गया, काम से तो थकान महसूस होगी, आपकी जीवन धारा की लय को छिन्न-भिन्न कर देगी, और खेल भव उसमे ताजगी, जीविन्तता तुम्हारे खालीपन को भर प्राणवान बना देगा। देखो ये संसार का विस्तार क्या कोई रच सकता हैं इस रचना को, जब तक खुद रचयिता ही रचना मे सर्व सब हो एक न हो जाये। जब हम करता होते है तो हम दुर.....(और वो हँस पेड़) तू भी कैसा ज्ञानी बान हाँ-हुँ कर रहा था।’’
मैं--’’दादा ये सब मुझे बहुत अच्छा लगता है, आपकी वाणी अन्दर तक छू कुछ कहने लगती है। शब्दों को चाहे पकड़ न पाऊँ,पर मुझे लगता है ये सब मैं जानता हुँ।’’
दादा भोला की वाणी ने मुझे अन्दर तक तृप्त कर गया, चाहे वाणी उसका विवेचन न कर पाये परन्तु ह्रदय उससे सराबोर हो रहा था। आदि काल मे जब भाषा का विकास नहीं हुआ था, तब कैसे मनुष्य अपने भावों, विचारों, का आदान प्रदान करता था। क्या शब्द कभी अधूरे नहीं रह जाते, आप जब कहे चुके होते तब आपको लगेगा, जो कहना चाहा वो तो अभी अन्दर ही कैसे छटपट रहा हे, बेजान शब्द केवल निकल रहे हे। एक बुद्ध पुरूष भी इन्ही शब्दों का इस्तेमाल करता है, निर्जीव, प्राणहीन शब्द उसके अन्तस की गहराई को छू के कैसे चेतन-अचेतन की दीवारों को धकेल कर तुम्हारे रोए-रोए मे समा जाते है। उनके संग-साथ होना कैसे न होने जैसा होता था। इस स्थूल शारीर का भी भार है हमारे होने मे, कभी नितान्त अकेले अन्तस मे
पहली बार जब कोई जाता है। वह अपने शारीर को दूर क्षितिज के पार देख रहे होता है, और आपको अपने पुर्ण होने का अहसास होता है शारीर के बिना भी , कैसे खीलें पन का बिना किसी बन्धन के कैसा निर्भरता महसूस होती है। वो अनुभव पहली बार इस काया की पकड़ उसकी भार तत्त्वता का बौध तुम्हारी जीवन शेली अमूल परिर्वतन भर देगी।
उनके संग-साथ होना कैसे न होने जैसा लगता था। मेरे हम उम्र भी मुझे दादा भोला कह कर चिढ़ाते थे। मुझे अपने हम उम्र बच्चो की न तो बातें रुचिकर लगती थी, न उनके खेल, छिछोरा स्तरहीन, उथले बिना सर पैर कि लगती थी। खेतों में जब काम नहीं होता जब भी दादा भोला जंगल में ही हो एक दो भैंसे, दो एक बैल, तीन-चार गायें, उन्हे खेतों मे चराते रहते थे। कोई भी बहती गंगा में हाथ धो लो सब के लिए छुट थी, जब कोई कहता दादा ये भेस उसकी है, ये गायें इसकी है, वो केवल मुसकुराते आँखो में एक भाव होता की मैं जताता हुँ, कभी किसी को मना नहीं करते थे। गर्मी के मारे भैंसे तो तलाव में घुस जाती, परन्तु गायें या बैल पानी से बहुत बिदकते थे। वो चरते आगे बढ़ जाते तब दादा भोला को मेरी उपयोगिता पता चलती, मुझे तो पानी में घुसने का बहाना चाहिए था। तब मैं दादा भोला की भेस के साथ अपनी भेस को मलमल के खूब नहलाता, हमारी भैंसे भी तो उन्हीं भैसो में चरने आ जाती थी। फिर वो किसी छाँव दार वृक्ष के तने की टेक लगा बाँसुरी बजाने लग जाते। जब मैं उन भैसो का मुँह पानी से रगड़ कर धोता कैसे लम्बी-लम्बी उसास छोड़ती, हवा के साथ पानी की महीन बुंदे कैसे मेरे मुँह को भिगो जाती थी। दुर बाँसुरी की मधुर तान के साथ भेस कैसे गर्दन हिलाती मानो प्रत्येक सुरों का ही नहीं राग बौध भी है, नाहक तुमने मुहावरा बनाया ’’भेस के आगे बीन.....’’ बीन की बात ही मत करो हम तो बाँसुरी पर ही नहीं अटके कहो तो सितार के सुरों को बता दे, कौन, कण, मीड़, मुर्की.. लगाई है, कौन सुर विवादी है जिससे बचना है। पर मैं देखता भेस की अकल में तो क्या आना था, उनपर कोई असर भी नहीं हो रहा था। बांसुरी की तान तालाब की लहरों से टकरा कर, पूरे वातावरण को संगीत मय कर देती थी। क्या बजाते थे, पक्का नहीं कर सकता शायद राग केदार भगवान कृष्ण का प्रिय राग हेमंत दा का केदार में भजन ’’ दर्शन दो धन श्याम नाथ मोरी अँखियाँ......’’की धुन रह-रह भोला दादा के सुरों की याद दिला जाते है।
फागुन का मद मस्त माहौल सरदी गर्मी की रसा कसी से शरीर मे मादकता के साथ उन्माद भर लाती थी। आप सावन की मादकता की छुअन नन्हे चमकदार पत्तों पर ही नहीं, पलास और सेमल के फूलों तक पे महसूस कर सकते है। औरतों मे तो सावन ऐसे सिहर-सिहर कर हिलोरे मारता है, उम्र के बन्घनों के सभी तट बन्द तोड़ देना चाहते है। श्याम का झुटपुटा होते न होते गाँव की औरतें चौपाल के बड़े चौक में इकट्ठी होने लगती थी। साठ से लेकर सात बरस औरतें लड़कीयों में बस शरीर का ही भेद रह जाता था, वरना उनके अन्दर से छलक़ता बचपन, अल्हड़पन, अठ हास, हंसी मजाक एक हो जाता था। मैं देखता किसी ६० वर्ष की प्रौढ़ में भी उसका बालपन कैसे रौएं-रेसे से रिस-रिस के बह रहा होता था। फिर न उसे प्रोत का अहसास होता और न लडकपन का दोनों इस प्रकार समतुल्य हो जाते की भेद जानने के लिए ध्यान को चेहरे पर ले जाना पड़ता दादी कौन पोती कौन है। उनका हंसी ठिठोली करना एक दूसरे को छेड़ कर किलकारी मार-मार कर भागना अस्मरणीय है। अगर इस बीच दादा भोला के बीना भी कोई महफिल मानो बीन सूर के साज, बीन तान के नाच हो सकता हे, दादा भोला के आने से महफिल मे शबाब ही नहीं फूलों मे सुगन्ध भर जाती थी। दादा भोला का उन बाल योवनाऔ के बीच मदमस्त हो कर नाचना,ढोल मंजीरों के साथ ताली बजा के गाना इस लोक का दृश्य नहीं लगता था। सब बहु-बेटियाँ अपनी उम्र नाता, घूंघट को भूल इस नृत्य में विलीन हो जाती थी। कुछ ही देर में ऐसा शमा बँधता न नृत्य और नृत्यकार एक हो जाते, शायद यहीं है वो रस जो अतिशय होते-होते रास बन जाता है।
दादा भोला के इस तरह गाँव की बहु-बेटियों के साथ नाचना, घूंघट पर्था, जहाँ बहु ससुर-जेठ के सामने बोलती तक नहीं घूँघट में ६०-७० साल की औरतें छुपी रहेगी। मनुष्य की चेतना के उतंग आयामों को उन भोले-भाले देहाती से दिखने वालो के अन्दर कहीं छीपा होगा। गाँव के बुर्जुगों केवल गर्दन मचका कर हंस देते और पगला, या दीवाना की उपाधी दे आगे बढ़ जाते। न कोई बूरा मानता न नाराज होता, आप अपने अन्तस की गहराई से ही सामने वाले की गहराई को समझ सकते हो, और तो कोई पैमाना नहीं, क्या चरित्र है, क्या सोच हे आपकी, सौ बातों की एक बात ’’चौरों को सारे नजर आते है चौर’’। आज मनुष्य का मन कितना जटिल है, वो लोग कितने सरल और महान थे । दादा भोला न जब अपनी घर गृहस्थी नहीं बसाई तो फिर वो एक परिवार की सीमा में कैसे समाता, पूरा गाँव ही उसकी घर परिवार इस लिए कहूँगा दिल्ली से बहार कभी गया ही नहीं, वरना तो ऐसे इंसान के लिए देश क्या ये पृथ्वी भी छोटी पड़ती। जब कोई गाँव में त्योहार होता तो सब नम्बर से दादा भोला को निमंत्रण करते थे, किसी की हारी बिमारी हो, खेत क्यार का कोई काम, किसी का मकान गिर गया हो, भेस, गाय चरानी हो दादा भोला बिन बुलाए हाजिर। एक दीपावली पर हमारे घर भोजन करने आया था दादा भोला, मैं कैसे फूला नहीं समा रहा था दादा भोला हमारे घर आज आयेगा, यहाँ बैठेंगे, माँ क्या खाने को बनाएगी, मैने अपनी माँ के सार दिन कान खा लिए। रात जब खाना खान के लिए दादा भोला आया तो माँ ऐसे खाना परोस रही थी मानों कोई भगवान को भोग लगा रहा हो। साल मे त्योहार-बार को छोड़ कर दादा भोला अपने छोटे भाई के घर खाना खाता था जिसके साथ वो रहता था।
उस दिन जेष्ठ की बुद्ध पुर्ण मासी थी। गाँव के लिए विशेष दिन होता, अब बुद्ध भगवान से क्या सम्बन्ध है, परन्तु गाँव जब से बसा है ये दिन विशेष उत्सव की तरह होता था। एक तो गाँव का वो शिवाला जिसमे कोई मूर्ति नहीं, दूसरा ये पूर्णिमा,जो भगवान बुद्ध के अनुयाइयों के लिए महोत्सव है, इसी दिन भगवान का जन्म, ज्ञान और मृत्यु तीनों एक ही साथ घटे थे। उस दिन पुरा गाँव, गाँव न रह कर मेले, उत्सव में बदल जाता था। उस दिन प्रत्येक गाँव का पुरूष, स्त्री, बच्चे कहीं मीलों दूर से भी गाँव पहुँच जायेंगे, यानि गाँव की एक-एक संतान जो भी इस मिट्टी से कोई भी सम्बन्ध है इस दिन यहाँ आप उसे देख
सकते है। गांव की बहु, बेटियाँ, नए कपड़े पहन ऐसे छम-छम कर इठलाती चलती, कोई शादी विवाहा में भी क्या चलती होती हाँगी। रंगी पोशाकें पहने जवान होती लड़कियाँ गलियों मे भागती ऐसे लगती तितली याँ उड़ रही हो। माँ लाख शोर मचाती पूरियाँ सहज कर घर दी प्रसाद का सब सामान परात में रख लिया, हाँ, हुँ, भर पास पड़ोस की सहेली यो, भौजाइयों को अपने गहने कपड़े दिखाने है, उनके टीका, गल सरी, कोनों के कर्णफूल... आज बहु शादी मे मिले सारे गहने पहनती। यही तो औरतों के जीवन मे दो चार दिन आते पहनने औढ़ने के वरना तो वहीं चक्की चुल्हा ही नही साँस लेने की फुर्सत देता। घर-घर पकवान बन रहे होते, गरीबों का कोई उत्सव मेला हो वो कैसे सुन्दर पकवान बनाते, सामर्थ्यवान व्रत, उपवास रखते है। अजीब विरोधाभास लगेगा, परन्तु यही है जीवन की जटिलता आप इसे देखो, इसकी नीव में गए नहीं की आप गये काम से। गाँव से दादा भैया की मढ़ी करीब दो कोस तो होगी ही। गहने, कपड़े, सर पर प्रसाद की परात, गीत गाती औरतों को मानो गर्मी से कोई लेना देना ही न हो, तपती रेत पर दौड़ते बच्चे पसीने से सराबोर हो रहे होते, कबूली कीकर की हरा रंग इस बरसती आग में भी आँखो में ही नही अन्तस तक को शान्त कर जाता था। दादा भैया के पास बड़े-बड़े पीतल के कनाल भर कर ठंडा शरबत बनाया होता था। मील भर की तपती आग के बाद बही अमृत तुल्य जीवन दायिनी लगता। गुड़-गुलगुलो का प्रसाद चढ़ता, घर के बने भोजन का भोग चढ़ाया जाता। सब हंसते गाते घर की तरफ़ चल देते, अब घर बने पकवानों की खुशबु ही नहीं मुँह स्वाद के इन्तजार में पानी से भर-भर जाता, बच्चो को लाख मना करो मत दौड़ो जब तक एक आध बच्चा रेत में गिर कर धूलिया-धमाल न हो जाता तब तक चेन नहीं लेते। पसीने से सराबोर कपड़े पर जब बालू का महीन रेत, मुँह और कपड़ो पे लिपट जाता न कपड़े की पहचान न चेहरे की बच्चा न हो कोई भूत, दूसरे बच्चे मुँह छुपा कर हँसते। अब कोन उठाये इस भूत को न उठाए तो चुप न हो। झाड़ पोंछ कर किसी तरह राजी किया जाता घर के पकवानों की याद दिलाई जाती तब कहीं शाही सवारी चलने को राजी होती थी।
दोपहर ढ़ल गई थी, सुर्य का उफान कुछ कम होने लगा था,अचानक खबर आई दादा भोला को गोली लग गई। पुरा गाँव सुना हो गया, चील वाली के पार एक शीशम के पेड़ के नीचे बैठे बांसुरी बजा रहे, गोली पेट के आर पार निकल गई थी। दादा भोला आदमियों से धीरे थे, सारे कपड़े और जमीन खून से सराबोर थी। मैं भी किसी तरह से अन्दर पहुँचा, पेट के आस पास किसी ने कपडा लपेट कर खून बन्द करने की कोशिश भी कर रखी थी। दादा भोला ने मुझे देख अपने पास बुलाया उनकी आँखो में जीवन निर्मल झील की तरह भर था, आज चालीस साल बाद भी वो आँखें मैं भूल नहीं पाया। चेहरे पर वहीं माधुर्य, टपकती हँसी ,इतना शान्त की पीड़ा संताप की कोई लहर नहीं। शायद जीवन की झील आज अपनी पूर्णता पे अपने सौम्यता के उत्तुंग पर पहुँच स्फटिक दर्पण बन गई हो। अपने हाथ की बांसुरी मेरे हाथ में देते हुऐ बस इतना ही कहाँ ’’बजाना एक दिन बजेगी’’ सब हास्पिटल ले जाने के लिये बेल गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। दादा भोला ने मना कर दिया ’’अब मैं जाऊँगा, कोई भूल चूक हो तो माफ़ कर देना’’ दोनो हाथ जोड़ और आंखे बन्द कर ली मानों सो गये। जमीन का गुरुत्वाकर्षण इतना सधन हो गया, सब कुछ देर लिए पत्थर हो गए, रोना हीलना सब जड़ वत हो गया कुछ क्षणों के लिए।
दादा भोला चले गए, उन पेड़ पौधों, पहाड़ी रास्तों, तालाबों, गाँव की गलियों,पशु पक्षियों से कहने की कोन हिम्मत करे, जब भी इन से गाँव के किसी प्राणी का सामना होता तो वह ड़ब-ड़बाई आँखो को छुपाने के लिए मुँह फेर लेता। समय के साथ आदमी बदले, आज बच्चे जानते भी नहीं कोई दादा भोला नाम का प्राणी भी यहाँ हुआ ही नहीं, प्रेम, श्रद्धा की सांस-सांस जिया था। दादा भोला की वो बांसुरी आज भी उस शीशम, पीपल के पास बैठ कर बजाता हो तो लगता है हाथों पर पानी की कोई बूंद गिरी, आँख खोल जब उपर देखता हुँ तो वो सजल नेत्रों से पूछने की कोशिश कर रहा है, क्या प्रकृति इतनी संवेदनशील है, कैसे नृउत्तर से, अविचल, थिर, यादों को अपने अन्दर समेटे, सरदी, गरमी, बरसात, में अड़ी खड़े पूर्णता से जीता रहता है। शायद मनुष्य ने अपनी जड़े प्रकृति से काट ली है, अब उसकी नियति केवल सूखने की है। वो विज्ञान के लहलहाते फलो,पत्तों रूपी सुविधा से अभी भूत है, वो इतना भी शायद नहीं जानता पत्तों को सींचने से वक्ष में जीवन लहलहाते नहीं होता उन अदृष्य जड़ो के अन्धकार में कहीं जीवन छुपा है।
जब-जब बूल्लाशाह की काफिया को सुना, उनके जीवन को उन तरंगों, ध्वनियों, एक अटूट कड़ी की तरह बहते पाया, जिसका न आदि है न कोई अंत।
मनसा आनंद ‘मानस’