अध्याय—3
काल चक्र एक नियति--
काल चक्र एक नियति--
काल चक्र का
चलना एक नियति
हैं, इसकी
गति मैं
समस्वरता हैं,एक लय वदिता
हैं, एक
माधुर्य हैं
पूर्णता है।
जो चारों तरफ
फैले जड़ चेतन
का भेद किए
बिना, सब
में एक धारा
प्रवाह बहती
रहती है।।
उसके साथ बहना
ही आनंद हैं, उत्सव
हैं, जीवन
की सरसता हैं।
उसका अवरोध दु:ख, पीड़ा और
संताप ही लाता
हैं। लेकिन हम
कहां उसे समझ
पाते हमे तो
खोए रहते है
अपने मद में
अंहकार में, पर की
लोलुपता में
और सच कहूं तो
इस मन ने मनुष्य
के साथ रहने
से कुछ नये
आयाम छुएँ है।
मन में कुछ
हलचल हुई है।
कुछ नई तरंगें
उठी हे। मुझे
पहली बार मन
का भास इस
मनुष्य के साथ
रहते हुए हुआ।
ऐसा नहीं है कि
मन नहीं होता
पशु-पक्षियों
में, होता
तो है परंतु वो निष्क्रिय
होता है। सोया
हुआ कुछ-कुछ
अलसाया सा जगा
हुआ। लेकिन मनुष्य में यही
मन क्रियाशील
या सक्रिय हो
जाता है।
लेकिन मनुष्य
में ये पूर्ण
सजग,
जागरूक भी हो
सकता है। इस
लिए उस की बेचैनी
ही उसे धकेलते
लिए चली जाती
है। मनुष्य
केवल मन पर
रूक गया है।
शायद अपने नाम
को सार्थक
करने के लिए
ही समझो ‘’मनुष्य‘’ जिस का
मान उच्च हो
गया है। इस एक
मन के कारण
उसके पास जो
बाकी इंद्रियाँ
या अतीन्द्रिय
शक्ति कुदरत
ने सभी
प्राणीयों को
दी थी वो तो
धीरे-धीरे मृत
प्राय सी होता
जा रहा है।