Monday, December 24, 2012

पोनी—एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा

अध्‍याय—1
(मां से बिछुड़ना)
      क सुहानी बसंत, हवा में ठंडक के साथ थोड़ी मदहोशी छाई थी। धूप में भी हलकी-हलकी तपीस के साथ-साथ थोड़ी सुकोमलता भी थी। जो शारीर में एक सुमधुर अलसाया पन भर रही थी। कोमल अंकुरों का निकलना, पुराने के विछोह मे नए का पदार्पण, जीवन में कोमलता के साथ सजीवता फैलती जा रही था। पेड़ो की बल खाती टहनियाँ, उन पर निकले नए कोमल चमकदार रंग बिरंगे पत्ते, चारों तरफ़ सौन्दर्य बिखेर रहे थे । उन सुहावने १४ वसंतों को आज याद करना मानो जीवन के उस तल को छूना है जो आज भी मीलों लम्बा ही नहीं, अथाह अनंत-गहरा भी लग रहा हैं । ये १४ वर्ष मात्र वर्ष ही नहीं, जीवन के उस अनन्त छोर को छू लेने जैसा लगता है, जो युगों पीछे छुट गये हो।
मन के तलों में पीछे जाना, जीवन चित्रों को उलटे चलते देखना, समझना, कितना दुष्कर और असाध्य काम है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है, वो तो शाश्वत का हिस्सा है। बीतने वाला भी कल, जो आएगा वो भी कल वो ही काल समय है। उसी समय ने मनुष्य के मन को ऐसे जकड़ा है कि वो उसमें लाख छटपटाता जरूर है, परंतु शायद वो उससे निकलना ही नहीं चाहता है। वो उसके अन्दर गहरी खामोश निंद्रा में सोया रहना सुखकर समझता है। इस लिए वो परिर्वतन से ही समय कि गति को देखता रहता है, जहाँ चीज़ें धीरे बदलती है वहाँ समय धीरे चलता प्रतीत होता है, क्या वही अनंत मे काल, प्राणी में वही सापेक्ष समय नहीं बनता? परंतु कहाँ समय की सीमा काल कहलाती है, ये अभी भी दु विद्या भरा प्रश्न है, शायद कभी खोजा जा सके ।
      फिर प्रत्येक प्राणी का समय और काल भी भिन्न है। जड़, चेतन, अनंत आकाश मे फैले विस्तार, या प्राणी में पेड़, पौधे, कीड़े-मकोड़े, या कुत्ता, बिल्ली, .....या मनुष्य । अब मनुष्य प्राणी यों में सर्वोपरि है तो वही ग्रह नक्षत्रों में काल की गणना करता है। सौ हम इस पचड़े में नें पड़ कर सीधा मनुष्य के ही समय को ही जीवन का केन्द्र मान लेते है। शहर की भागम-भाग या गाँव मे सरकती-घिसटती जिन्दगी में घडी की टक-टक पर तो समय की लय लगेगी एक जैसी ही, परन्तु मनुष्य की जीवन चर्या के फैलने में एक नहीं लगेगी। मैं तो बस इतना समझ पाया परिर्वतन ही हमे, भागते समय का एहसास दिला रहा है। जहाँ चीजें तेजी से बदलेगी वहाँ समय कि गति तेज लगेगी, ये गति प्रत्येक प्राणी अचेतन की गति पर निर्धारित होगी या फिर आइंस्टाइन का सापेक्षवाद से, मनुष्य के चित का चेतन-अचेतन भी उन्हे नियन्त्रण या प्रभावित करता है। मोटे हिसाब से मनुष्य का एक दिन हमारा एक हफ्ते के समान होगा ।
      मनुष्य के संग रह कर अच्छाईयों के साथ कुछ बुराई या भी मैंने सीखी थी।, उन्ही में से कुछ अच्छी बुरी यादों को लिखने की कोशिश करुंगा। इससे पहले भी हम पर अनेक कथा-उपकथा लिखी गई, महाभारत काल में युधिष्ठिर के साथ हिमालय पार कर स्वर्ग जाना, या एकलवय की बाण कथा । खलील जिब्राहिम कि कहानी हमारी जाती का उपनिषद समझो। अब कहते भी बडा अजीब लगता है, मेरी जाती के मुझे घमंडी अवश्य समझेंगे की मैं भी कैसी शेखी मार रहा हुं, वरना जब ठन्डी होती तो आग के पास बठना, गर्मी मे पंखे के नीचे सोना कितना भला लगता, कमरे के बहार गर्मी में इन बालों के कारण कितना हांफ जाता था, जीभ से लार गिरा कर बेहाल हो शरीर को ठंडा करने की कोशिश करता था । भगवान ने पूरे शरीर में जीभ और नाक पर ही रोम छिद्र बनाये है। जो हवा के स्पर्श से शरीर के ताप को नियंत्रण करते है। क्यों बालों का ये लबादा हमारे उपर पहनाया, यह सब  मेरी समझ में नहीं आया था। लेकिन जब बहार झांक कर देखा तो समझा  कि सभी कुत्ते मेरे जेसे भाग्यवान नहीं होते ? हजारों मेरे भाई बहन ऐसे भी होगें जो खाने के एक-एक टुकडे के लिए गली-गली मारे फिरते होगें। नहाना क्या बरसाती पानी मे भीगना समझो वो भी कभी-कभी, जब कहीं छुपने की जगह नही मिल पाती होगी। तो वो कैसे कूड़े के ढेर में कुंडली मार कर सो जाते है। कैसी कूड़े की घिनौना गंध आती होगी उनके शरीर से। साबुन, शैंम्‍पु उन बिचारों के भाग्य मे कहाँ लिखा है। गंदे कीचड़ मे लेट कर अपनी गर्मी मिटाते होगें कैसे कीचड़ की बू के साथ-साथ उनके शरीर से कीड़े चिपट जाते होगें, कितना दर्द होता होगा जब वो चिचड़ लगातार उनका खून पीते होगें। परंतु में ये सब क्‍यों सोच पा रहा हूं क्योंकि मेरी इनसे दुरी है पर मैं ये सब भी किसी दूसरे पर आसरित हूं मैं मोहताज हूं । जब कभी बहार निकलते ही कोई साथी भाई टकरा जाता और उसकी दबी पूंछ के नीचे अपनी चिर परिचित सूंघने की आदत से पास जाता तो कैसी दम घोटू बदबू आती थी। अब ये सूँघने  की पुश्तैनी आदत के बारे में न ही पूँछों तो अच्छा है, फिर आप कहो गे भई छुपा लिया महान बनने के लिए, अव कोई लिखे कपड़े तो कोई हजारों मे एक देगा मगर ये चमड़ा फाड़ कर कोई विरला ही दिखा पाएगा चलो ये काम भी हम किए देते है। सब हमारा नाम गाली की तरह, कुत्ता है, मै तेरा खून पी जाउँगा कुत्ते कमीन, सब कुत्तों पंचायत बुलाई राजा के दरबार पहुँच गए सब कुत्तों ने हाथ जोड़ राजा से अपने उपर लगे इस तोहमत को गलत बताया, महाराज हम कितने वफ़ा दार है, जब आपके सिपाही भी सजाते है हम जी जान से नगर का चौकीदार करते उसके बदले हमें पत्थर, लकड़ी से मारा जाता है, गालियां के साथ दुत्कार मिलती है। इतना वफ़ा दार आपके राज्य में क्‍या कोई है? वो भी बिना किसी लोभ लालच के, महाराज न्याय चाहिए कुत्ते की मौत मरेगाजैसे अपशब्द बोले जाते है, मृत्यु को भी अपमानित किया जाता है, आपके राज्‍य में,  हम जी तो रहे पर हम अंदर से बहुत दुखी और असहाय महसूस करते है। आप हमारा कुछ न्‍याय कीजिए। इतना कहकर सभी, सभी कुत्‍तों ने अपनी गर्दन नीची कर ली ओर कुत्तों की आँखो में आँसू भर आए। राजा भी भावविभोर हो गया।
      कुछ देर के मौन के बाद राजा बोला: अब तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा, मैं एक प्रोनोट लिख कर तुम्हें दे देता हुँ, तुम इसे जंगल के राजा शेर को दिखा, वह उस पर अपनी मोहर लगा देगा, फिर मनुष्‍यों में आकर आप से सार्वजनिक घोषणा कर देना। और मैं नहीं समझता हूं कि उसके बाद ही लोग अपका मजाक उड़ायेंगे। अगर फिर भी वो लोग ऐसा करते है तो वो सज़ा के हकदार होगे। सारे कुत्‍ते अति प्रसन्‍न हो राजा को झुक कर प्रणाम कर जंगल की और चल दिये। उस पर नोट को हमारे एक बहादूर साथी ने कहते है अपनी ढूँढी में छीप लिया। ताकी वह भीगे ना, उसे कोई छीन न पाये। क्‍योंकि रास्‍ते में बहुत खतरे थे। इस बीच वे सब जंगल राजा शेर से मिलने के लिए जंगल में उसे ढूँढ़ते रहे। सुबह से श्‍याम हो गई, दिन से महीने बीत गये, परंतु राजा को ढूंढना इतना आसान नहीं था। आखिर सब थक गये। और सब एक जगह  बैठ कर विचार करने लगे कि अब क्‍या किया जाये। तभी पास की झाड़ियों के पीछे से शेर के गरजने की भंयकर आवाज आई। वो सब डरे भी। परंतु राजा का प्रोनोट उनके पास था। वही उन्‍हें साहस और हिम्‍मत दे रहा था। किसी तरह से हिम्‍म्‍त कर वे सब शेर के सामने पहूंच कर उन्‍हें नमस्‍कार किया और अपनी दूःख भरी दास्तान सुनाई। और उन्‍होंने निवेदन कर कहां की महाराज हम सब शहर के मनुष्‍य के संग रहते है। हमने वहां पर भी आपका और पशु जाति का मान और दब-दबा बनना शुरू कर दिया है। और उस देश का राजा हमारी वफ़ादारी से बहुत प्रसन्‍न है। कुछ मनुष्‍य हमारे पशु वंश पर कुछ तोहमत लगते रहते है। जो हम ही नागवार है, उससे आपके मान सम्‍मान को भी हानि पहुँचती है। वह हम सभी के लिये अपमान जनक बात है। इस लिये हमने मनुष्‍य के राजा से निवेदन कर के लिखवा लिया कि आज से हमें कोई अपशब्‍द न बोले। जंगल का राजा उनकी इस बात से बहुत प्रसन्न‍ हुआ। कि मनुष्‍य के बीच रहकर तुम जो साहस और धैर्य का परिचय दे रहे हो, वह बहुत बेजोड़ कार्य है। और इस बात की मुझे प्रसन्नता है की तुम धीरे-धीरे मनुष्‍य के दिलों को जीत रहे हो। अब तुम वह प्रोनोट मुझे दे दो। मैं उसपर अपनी मोहर लगा देता हूं। तभी अचानक हमारे झुंड का प्रतिनिधि पूछने लगा की प्रोनोट किस के पास है। परंतु इस अफरा तफरी और भागम भाग में हम ये ही भूल गये कि प्रोनोट किस के पास है। और आज हजारों साल बाद भी हम उसे खोज रहे है। इसी लिए आपने देखा जब भी हम किसी अपने साथी का स्‍वागत करते है तो उसकी ढूई को जरूर सूँघते है।  कहते है वो प्रोनोट  आज तक नहीं मिला उसे ही प्रत्‍येक कुत्‍ता ढूंढ रहा है। और धीरे-धीरे ये एक आदत बन गई। पर आदत तो आदत है, उसे छोड़ना इतना आसान नहीं मनुष्य खुद करोड़ो आदतों का गुलाम है जन्मों-जन्मों से, क्या इतना आसान है छोड़ना जितना हँसना आसान है। बरसात मे कहाँ छुपते होंगे बिचारे मुझे बरसात मे भीग नें से कितना डर लगता है, उन्हे भी जरूर लगता होगा, बरसात मे कैसे कान बोच अन्दर कोने मे दुबका जाता, ताकी  कोई बहार ना निकाल दे। खाने के लिए कहाँ-कहाँ मारे फिरते होगें, किस-किस की लात झिड़कियाँ खाते होगें। क्या यहीं न्याय हैं, या प्रत्येक जाती का भोग जो उसे सहना पड़ेगा ? क्या ये दार्शनिक विचार मेरे इस वैभव मे जीने से नहीं आ रहे, क्या सभी दर्शनों का यहीं चिर सत्य नहीं है ?
बरसात के पानी मे नहाने से भले ही डर लगे, परन्तु जब बाल्टी भर के नहलाते तो कितना भला लगता था। शारदी मे गर्म, गरमी मे ठंढा पानी कैसे शरीर को शान्त किये चला जाता लगता पानी खत्म ही न हो। नहाने के बाद साफ तौलिया से पोंछने पर भी रेत या फर्श पर रगडना मेरी कितनी भद पिटवाता अब आपको कह नही सकता। क्या ये हमारी टेढी पूछ की कथा नहीं है, जो हमारी जाती के लिए गाली देने जैसा है। वैसे तो सभी प्राणी लकीर के फकीर होते है, परन्तु मनुष्य ने इस के लिए नया नाम गढ़ लिया 'संस्कार। वो अचेतन पर खींची लकीर है जिसपर हम सभी पाणी अनजाने मे चलने लगते है। इसको मिटाना ही शायद क्रांति है, वरना जीवन एक भेड़ चाल ही है। हमे पूर्वजों से मिली सूँघने की धरोहर जो हमारे जीने के लिए बहुत उपयोगी है। उस आदत पर हमारी जाती को बडा नाज है, शायद पूरे प्राणी जगत मे हम सबसे ज्यादा गंध सूंघ कर पहचान सकते है। मनुष्य का स्वभाव, उसके गुण-दोष मीठा, नमकीन, केवल सूंघ कर महसूस कर सकते है। काश हमारी भाषा मनुष्य समझ लेता तो उससे हमे और सम्मन गौरव मिलता। परंतु अब भय लग रहा है, देखने की इन्द्रिय के साथ-साथ सूंघने की इन्द्रिय भी मध्यम पड़ती जा रही है। प्रकृति अपनी एक-एक धरोहर को समेट लेना चाहती है। शायद यहीं संस्कार नये जीवन के लिए पाथेय बने।
      सोचता हुं अपने जीवन के अच्छे बुरे अनुभवों लिख दूँ,मेरी जाती के तो शायद ये कोई काम आ पाये। क्या इंसान के काम आता है उसकी हजारों पीढीयों का लिखा ज्ञान भंडार उसके पास संग्रह है। परंतु मनुष्य उसे पढ कर कितना समझ पाया है। मनुष्य के जीवन को देखे, उसके ह्रास होते चरित्र को क्या हो गया इस मनुष्य को, क्यो बारूद के ढेर पर खड़ा है। पुरी प्रकृति का द्योतन अकेला कर रहा है। जल, थल और नभ को दूषित करने मे सब प्राणी यों को पीछे छोड़ रहा है, महाविनाश की लीला, सच मे क्या कोई मनुष्य को बुद्धि मान कहेगा। अपने हाथों ही अपनी विनाश लीला रच रहा हे, फिर एक दिन उसे पछताने का मोका भी नहीं मिले सके। तो फिर मैं कैसे यकीन करू, मेरा लिखा मेरी जाती के कोई काम आयेगा। मेरे मस्तिष्क में बहती विचार की धारा मेरे स्वभाव के विपरीत है। मैं इसे बस उलिचना भर चाहता हुं। एक मधुरता,नयापन को जीवन मे महसूस किया है, जो मैने देखा, समझ या जाना है, उसे छू भर सकूँ या उस महा जीवन के अंश मात्र को भी दर्शा सकूँ यही मेरी विजय समझो, काश मैं अपने भाव भाषा मे पिरो सकता, शायद पद्य तो थोड़ा छू भी लेता परन्तु गद्य तो नीरस,निर्जीव हो जाता है, कागज तक आते-आते फिर भी में लिखुगां इतना सब जान कर, आप इसमे थोड़ी भी रंग-गंध महसूस कर पाएँ तो मैं इसे अपनी विजय समझेगा ।
स्‍वामी आनंद प्रसाद ''मनसा''

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