एक थी काल रात-कविता
एक
थी काली रात,
एक
दिन वो आकर कहने लगी मुझसे।
कभी
तो बुझा दो अपना दीपक,
मैं
थक गई हुँ,
बहार
खड़ी इंतजार करते हुए सालो से।
मैंने
पूछा उससे कुछ फुसला कर,
क्यो
करती हो यहाँ पर खड़ी होकर मेरा इंतजार?
जाओ
वहां हजारों घरों पे तैरा राज चलता है।
कितने
गुनाह होते तैरी काली-छाया में,
कितनी
असमतो को तुम छीन लेती हो।
पल
भर में,
वो शरमा
कर यूं कहने लगी।
क्या
करूँ अब मैं वहां जाकर,
वहां
पर मेरे होने ने होने का कहाँ अब भेद रहा।
पहले
तो सूरज का जब उजाला होता था,
कुछ
काले गुनाह चलते से मेरी छाया में
मेरे
संग साथ।
परंतु
अब तो मेरे होने न होने का कहां भेद रहा।
पहले
मैं सूरज से डरती फिरती थी,
क्योंकि
मेरी झोली में
कुछ
पाप कुछ रहस्य छुपे होते है।
परंतु
अब तो मैं सीना फुला के चलती हूं।
अब
मैंने जीने का ढंग ढूंड़ लिया,
पहले
में उन्हें अपने सीने में छूपाये फिरती थी।
परंतु
अब तो मैं
लोगों
के ह्रदयों में छूप कर आराम से रहती हूँ।
मनसा-मोहनी दसघरा