तालाब
सुनने के लिए कान , दर्द के स्पंदन को महसूस कर ने के लिए दिल, देखने के लिए आँखें चाहिए । प्रत्येक बुद्ध पुरुष बार-बार यही दोहराता है ’’ कान है तो सुन लो, आँखें हैं तो देख लो ।’’ मैं सोचता था जब छोटा था, क्या वे अंधे-बहरे लोग ों के सामने बोल रहे थे। प्रकृति की एक लय है, एक समस्वरता है, उसमें पेड़, पौधे, जल, थल, चाँद, तारे, क्षितिज की भी लयबद्घता है, फिर क्या मनुष्य ने प्रकृति से अपने को अलग-थलग कर लिया है, जो उसके जीवन का अभिन्न अंग था। प्रकृति से विच्छिन्न हो आधुनिक उपकरणों को अपने जीवन में रचा-बसा लिया है। वही शायद उसके भाव और संवेदनशीलता को निगल रहा है। शायद समय ने इस प्रश्न को और अति प्रश्न बना दिया हैं। सुबह जल्दी उठने की आदत थी, सुबह की ताज़ा हवा , नींद में अलसाई सी प्रकृति, वातावरण में कैसी निभ्रर्म शांति फैली थी, मन्द्र हवा में पत्ते का हिलना, आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो पत्ता हवा को कह रहा हो अभी और सौ लेने दो। सुबह के वातावरण में पेड़-पौधों के साँस लेने की प्रक्रिया का बदलाव और सुगबुगाहट से लगता मानो, माँ की छातियों से दूध पीते किसी बच्चे के मुँह में ज़्यादा दूध भर गया हो और वो लम्बी-लम्बी उसास भर सुबकी याँ ले रहा है। आपको सुबह पेड़-पौधों को देख कर यही भान होगा। किसी पेड़ की टहनी आपको जरा छू भर गई नहीं की आप कैसे अन्दर तक सिहर जायेंगे, जैसे वो आपको जानती है और आपके छूने से ईठला रही है। भोर की जगती हुई प्रकृति आपके शारीर के रोए-रोए मैं कैसे जागरण का संचार भर देगी। पार्क के किनारे पर एक बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष था । उसके चारों तरफ़ पक्का चबूतरा बनाया हुआ था। पार्क में मुलायम हरी घास, बैठने के लिए बैंच, सुन्दर फूलों के पौधे, चारों तरफ़ अमल ताश, सह मल, नीम और बोगीनबिल्ला की झांड़ियाँ, गाँव के इस दम घोटू विकास में हरियाली की एक मात्र यहीं जगह खुले पन का अहसास दे रही थी।
मैं फेफड़ों से अशुद्ध हवा निकालते हुए पार्क के तीन-चार चक्कर लगाता था। शुद्ध हवा शारीर के रोम-रोम से प्रवेश कर उसे अघिक प्राण वान बना देती । पतंजलि का आलोम-विलोम तो, आज के तनाव पूर्ण जीवन की गति मैं, बैल गाड़ी जैसा हो गया है। बरगद के चबूतरे पर एक दरी बिछा कर, झूर-पटा होने तक ध्यान करता था। गाँव के एक बुर्जग जिन्हें हम सब ’महाशय जी’ कह कर पुकारते थे, जब उन्होने मुझे ध्यान करते देखा तो प्रसन्नता के साथ-साथ एक नेक सलाह भी दे डाली। महाशय जी का जरा सा परिचय दे दूँ, दयानंद जी के पक्के भगत थे, ता उम्र शादी ना करने का व्रत, जिसे वो आज तक निभा रहे हैं। अँग्रेज़ों के जमाने से ही दिल्ली पुलिस के नौकर थे, अभी कुछ दिन पहले ही रिटायर्ड हुए हैं।
’’बेटा ध्यान मैं एक सफ़ेद पतली चादर ओढ़ कर बैठा करो, तुम एक पेड़ के नीचे बैठ कर ध्यान करते हो ये बहुत अच्छा करते हो। मैं तो पहाड़ी पर एक खुली जगह पर बैठ कर ध्यान करता था। एक दिन चील के मन में क्या आई, पन्जों से सर पर हमला कर दिया, सर में पन्जें गड़ गए और ख़ून बहने लगा , उस घटना के बाद से मैं भी एक पेड़ के नीचे बैठ कर ध्यान करने लगा हूँ।’’
ये नेक सलाह मैने उनकी मान ली, पतली सफ़ेद चादर ओढ़ कर जिस दिन मैं बैठा, मानो एक झीना सा मन्दिर का गुम्बद मेरे चारों तरफ़ निर्मित हो गया। ध्यान भी उस दिन बहुत गहरा गया, अचेतन की गहराई में बोलने की फुसफुसाहट ने चारों तरफ़ से घेर लिया, एक छूती ध्वनि तरंग मुझे बहुत गहरे मैं सुनाई दी, जहाँ पर विचार भी दम तोड़ते हुए पीछे छूट गए थे। उस दिन ध्यान के बाद शरीर मैं ऐसी मधुरता भर गई, जैसे किसी नवयौवना के शरीर को पहली बार उसके प्रेमी के छूने से भर जाती हैं। एक मधुर थकान, एक अलसाया पन और इसके बीच बहती आनन्द और चुलबुले पन की धारा। फिर ये क्रम कई दिन लगातार चला, जैसे बचपन मैं गर्म बिस्तरों पर अल साए, नींद भरी आँखों को मसलते, ऊँघते हुए पंच तंत्र की कहानी सुनते बच्चों को केवल ध्वनि तो सुनाई देती, परन्तु मन उस ध्वनि को शब्दों मैं परिवर्तित नहीं कर पा रहा होता। गहरा अचेतन आज भी शब्द नहीं जानता, आपके सपनों मैं भी कोई भाषा नहीं होती, और न होते है रंग, कोई बिरला ही रंग और शब्दों से लिप्त स्वप्न देख पाता है।
तालाब-- ’’सुनते हो तुम्हारे संग और सौंदर्य को महसूस करने के लिए कोई तुम्हारी गोद मैं आकर बैठा था।’’
बरगद--’’हाँ देखता हूँ, सालों बाद कोई इतने करीब आया हैं।’’
तालाब--’’मैं जब से मिटटी, रोड़े, पत्थरों के नीचे दब गया हूँ, एक अन्त हीन घुटन, छटपटाहट, बेचैनी सी महसूस करता हूँ, न जाने कोन सी आस जो सालों पहले मरे हुए को मरने भी नहीं देती।’’
बरगद--’’ऐसा नहीं कहते तुम तो धरती की गोद में कितने आराम से सो रहे हो, मुझे देखो, न जमीन के नीचे पानी, और ऊपर से दम घोटू ये चबूतरा, जड़ को दीमक ने खोखला कर दिया हैं। अब साँस भी कितनी मुश्किल से ले पाता हूँ, पत्ते भी गाडियों के धुँऐ के कारण कैसे लकवा ग्रस्त से हो गए हैं। इन पर जमी धुँऐ की परत ने, मुझे बारह महीने अन्धा बना दिया हे। २००वर्ष की आयु में ही कैसा बूढ़ा जर्जर सा लगता हूँ, दादा परदादा कहा करते थे, ६००वर्ष मैं तो कोई जा के युवा होता था। अब तो भगवान से केवल यहीं प्रार्थना करता हूँ, उठा ले इस नर्क से ।‘
तालाब--’’ मेरे ऊपर फैली नर्म मुलायम घास, उस पर दौड़ते-भागते ये बच्चे, बेंच पर बैठी बूढ़ों की महफिल, औरतों का छोटे बच्चों की उँगली पकड़ उनको चलना सिखाना, कुछ क्षणों के लिए क्या वही रौनक-मेला फिर नहीं लौट आता हैं, ये सब अच्छा नहीं लगता।’’
बरगद--’’अच्छा तो बहुत लगता है, परन्तु अब पहले जैसी बात कहाँ रही। मुश्किल से कोई बच्चा पतंग के बहाने ही मेरे नजदीक आता है, पत्थर मारता हैं, पहले कैसे बंदरों की तरह लदे रहते थे, पक्षियों से भी ज़्यादा गूलर तोड़-तोड़ कर कैसे बिखेरते थे। बरसात में भी घर नहीं जाते, जब तुम किनारे तक लबालब भर जाते, कैसे काँपते-ठिठुरते नीले होठ लिए, मेरी टहनियों पर चढ़ कर तुम्हारे गर्म-गर्म पानी में छ-पाक से कूद जाते तब तुम कैसा छिटक कर बखर जाते थे। तब तुम्हें कैसा लगता था, पानी में रुनकझुनक बूँदों की बरसात, और उपर से मेंढकों का गूलू रे फूलाफला कर टर्र..टर्र...की अविछिन्न बहती ताने, मानो बादलों को धन्यवाद दे, खुशी में मेध मल्हार गा रहे हो।’’
ध्यान के बाद जब तुम धीरे से आँखें खोल कर देखोगे तो वही पुराने दृश्य अभूतपूर्व सौन्दर्य लिए हुए होगें, ध्यान का ताज़ा-ताज़ा होश आँखों को कोरी और निर्मल बना देता हैं। पक्षियों की चह-चाहाट, आती-जाती गाडियों का शोर, कौवों की काँव..काँव...धीरे-धीरे मेरे कानों को सुनाई देने लगी, तब मुझे अपने होने का भान हुआ। फिर सारा दिन यही विचार मेरे मस्तिष्क में इधर से उधर लुढ़कते रहे, हफ्तों बाद भी एक सूत्र में पिरो नहीं पाया था।
दिल्ली के बढ़ते विस्तार ने इन गाँवों को कंकरीट का जंगल बना दिया हैं। ठुसी आबादी, चिड़िया धर के दड़बों की तरह बने कमरे, सड़क पर जहाँ देखो तहाँ नर मुंड ही नर मुंड, बीच मैं रेंगाती गाड़ियाँ, मस्त जुगाली करती गाय और उनके बछड़े, शोर मचाते सब्ज़ी खोंमचों वालों के हाट, बीच-बीच मैं घण्टे-घड़ियाल बजाते साई और प्रचीन शिव-हनुमान मन्दिर, कान के पीछे पो-पो, चों-चों करते साइकिल-स्कूटर वाले, अरे भले मानस देखते नहीं कंधे से कंधे छीले जा रहे हैं, तुम्हे अपने टी..ई..टी..ई की पड़ी। सब्र का घूँट तो कोई पीने को तैयार ही नहीं हैं, सब को जल्दी पड़ी हैं, जैसे इनको जरा भी देरी हुई नहीं तो लाखों काम बिगड़ जायेंगे। सब जानते हैं धर जाकर टी०वी० के सामने बड़ा सा मुँह खोल कर झमाईयाँ लोगे, या बिना सर पेर के चंडूख़ाना चटपटे समाचार, या फूहड़ धारावाहिक जो गोलगोल कुएँ के मेंडक की तरह, जिनकी चाल के सामने चींटियों को भी शर्मा आ जाए।
आज जहाँ पार्क बना है, ३०साल पहले तक यहाँ एक तालाब हुआ करता था, उसे प्यार से ‘’रामतला’’ कह कर पुकारते थे। क्योंकि वह मनुष्य, पशु, पक्षियों के लिए, उत्सव, मेले, दुख-र्दद, सभी के लिए वो जीवन का एक अभिन्न अंग था। कैसे थे वो लोग जिन्हे आज हम अनपढ़ गंवार समझते हैं। जो एक तालाब का नामकरण भी ’’राम तला’ सरीखा रख देते थे, कैसे प्रेम छलक-छलक बहता होगा उनके ह्रदय से, हमारे सूखे, नीरस और बेजान ह्रदय समझने मैं भी असमर्थ हैं। डी०डी०ए० ने अधीनीकरण के नाम पर उसे मिटटी, पत्थरों से भर कर एक पार्क बना दिया । शादी, जन्म दिन, नेताओं के भाषण, धर्मी उत्सव, आधुनिक राम लीला की बड़ी स्टेज के लिए जगह की कमी खलती थी। पुराने उत्सव मैले, आज के आधुनिकता की दौड़ मैं गँवारूपन प्रतीत होते हैं। अब शायद ये गाँव के लिए बोझ बन गया था, सो तालाब को शहीद कर दिया गया और उसके उपर एक कब्र बना दी पार्क के नाम की।
एक तो तालाब इतना बड़ा, और उस पर फैले जल का ये अनन्त विस्तार, उसके स्वच्छ जल मैं झाँकती पेड़-पौधों की परछाई, एक किनारे से उठी लहर दूर जब दूसरे किनारे की चट्टानों से जब टकरा कर छिटकती, तो कैसे आवाज़ करती, छ...प्पा....क ... और अगर आप पास खड़े है तो आप हो गए सराबोर। जहाँ पानी है, वहाँ जीवन तो होगा ही। पीपल, बरगद, नीम, रोझ और किंकरों का तो पूरा जंगल ही था। वहाँ हमारा भी एक नीम का वृक्ष था, उसे डूँड़ा नीम कह कर पुकारते थे। आप सोचे होगे हमारा नीम, गाँव का प्रत्येक व्यक्ति राम तला के पास एक पेड़ लगा कर अपने को धन्य समझता था। ये डूँड़ा नीम हमारे परदादा ने लगाया था। मैने भी पिता जी से हठ करके एक सहमल का पेड़ लगवाया, उसके चारों तरफ़ काँटों की बाड़ लगाई, ताकी जानवर आदि उसे खा न सके, मैं रोजाना उसमें पानी डालने जाता था। कितना सुखद लगता, जब उसमें कोई कोमल पत्ता निकलता, फिर शाखा-प्रशाखा, टहनी याँ जैसे-जैसे वो बड़ा होता, मेरे अन्दर भी कुछ बढ़ता सा प्रतीत होता था। नन्हा सा, सुकोमल पौधा देखते ही देखते एक दिन जब वो वृक्ष हो गया, जब उसमें पहली बार दो चार फूल खीलें तो मेरे मन कैसे रचयिता होने का भाव जगा था। सहमल कैसे चारों तरफ़ लम्बे-लम्बे घाघरे की तरह टहनियाँ घुमाता हुआ बढ़ता है, जैसे अभी नृत्य करने वाला है। बसंत में पत्ते विहीन फूलों से लदी टहनियाँ आपकी नजरों को ना चाहते हुए भी बरबस अपनी और खींच लेगी। आज तालाब विहीन वो उदास दिखता है, न फूलों में वो चमक है, न पत्तों में इठलाना पन, उदास, मायूस ऐसे खड़का दिखता है, जैसे एक रोते बच्चे का काजल फैल कर सारे मुहँ को रंग गया हो, अब वो दीवार से मुहँ सटाए उदास रूठा खड़ा है, और माँ उसे हँसाने के लिए आईने का सहारा ले रही हो। मुझे भी ऐसा लगता है, काश मैं तालाब में उसका गंदा कुरूप चेहरा उसे दिखा पाता, तो ज़रूर वो नन्हे बच्चे की तरह किलकारी मार कर हँस पड़ता, मैं लाचार बेबस उसे देखता हूँ, कहाँ से लाऊं उसके लिए ''रामतला''। शायद वो मेरी बेबसी समझ गया, और अब उसने इंतजार करना भी छोड़ दिया।
जेष्ठ की भीषण तपिश से पहाड़-मैदान जब झुलस रहे होते थे, तब भी राम तला हजारों पशु, पक्षियों और मनुष्यों के शारीर की जलन को कम करता था। श्याम होते तक आग उगलती हवा भी तालाब के सम्पर्क मैं आते ही दुर तक कैसी शीतलता भर देती थी। जेष्ठ में दादा बूढ़े की दूज आते तक, राम तला के चेहरे पर बुर्जगी की बड़ी-बड़ी तरेड़ें फैल जाती थी। तब पूरा गाँव उमड़ कर कैसे उसमें भरी कीचड़ के ढेलों को निकाल-निकाल कर उसके किनारे मज़बूत करने के लिए पाल बाँधते थे। सूखे ढेलों के नीचे जब कोई मेढक या कछुआ दिखाई दे जाता तो नई नवेली दुल्हन या बच्चा कैसे अचानक किलकारी मारता, तब शान्त और थकान भरे वातावरण में कैसे हँसी की फुहार फैल जाती थी। दिन भर गुड़ और मालपुवो की दावत चलती । साल भर की धूल धमास, कीचड़ से मुक्ति पा राम तला आने वाली बरसात के लिए फिर जवान हो जाता था। आज भी लकीर पिटी जाती है परम्परा की न उसकी ज़रूरत है न उसमें कोई उत्सव है।
सावन की बौछारें पूरी प्रकृति के अन्दर शीतलता के साथ नए जीवन का संचार भी भर देती हैं। महरून कोमल तीज घास की पुल्लिंगों पर ही नहीं रास्ते पर भी आपको पेर सम्हाल कर रखने को मजबूर कर देगी। तीज की कोमल त्वचा को जरा सा छुआ नहीं की कैसे नई नवेली दुल्हन की तरह सिकुड़ कर बैठ जाएगी। कुंवारी लकडियां ही नहीं बढ़ी बुर्ज ग औरतें भी अल्हड़-नटखट हो रात भर झूला झूलती रहती थी। शायद रात उनके बुढ़ापे को अन्धेरे में देख नहीं पाती होगी, उन्होने भी इसका फायदा उठा कर अपने बचपन को बाहर निकाल लिया होगा। झूला-झूलते हुए उनके कंठ से निकलते मधुर गीत सर्व-सब में उल्लास भर देते थे। गीतों की मधुर आवाज़ पक्षियों में भोर होने का भ्रम पैदा कर देता थी, भ्रमित हो वो भी उनके कंठों से कंठ मिला चहकने लगते थे। तालाब शान्त हो, गीतों की मधुर लोरी में, सोता कैसे देव तुल्य प्रतीत होता था।
दशहरे-दीपावली के दिनों में उसके आस पास जलते दीपक ऐसे प्रतीत होते मानो उसने सोने का ताज पहन लिया हो। घर-घर बनी मिट्टी गोबर की साँझी, दशहरे वाले दिन खड़िया, गेरू से पुतते मिट्टी के गोल-गोल सितारे, तालाब के सीने पर जब तैराते हुए फ़ैलते तब अनायास उसके चेहरे पर फैली हँसी देख कर समझ जायेंगे, कि वो गुदगुदी के कारण नन्हे बच्चे की तरह किलकारी मार कर हँस रहा हैं। रात को गीत गाती कुंवारी लड़कीयों के सर पर रखे मटके के छेद से निकलता दीपक का प्रकाश कैसा भला प्रतीत होता था। दुर से देखने पर ऐसा लगता कोई आसमान से हजारों तारों को तोड़ कर लिए चला आ रहा हैं। किनारों पर मेंढक और झींगुरों की ताने मानो बेड बाजा कर उनका स्वागत का भी काम कर रहे थे। पास खड़े गाँव के जवान लड़के किनारे पर पत्थरों और कंकरों का ढेर लिए बैठे रहते । लड़के उन मटकों को ले जाकर तालाब मैं बहुत गहरे तक छोड़ कर आते थे। क्योंकि उन्हें फोडना है, फिर किनारे पर ही फोड़ना में क्या बहादुरी सो उन्हें गहरे से गहरे पानी में जाने दिया जाता था। पानी पर तैरते मटकों से निकलता प्रकाश, टिमटिमाते तारों के अक्ष की तरह प्रतीत होता था। उठती हुई लहरे उसको करोड़ो टुकडों मैं तोड़ कर बिखेर देती थी। लगता जैसे अंनत बॅजरे किसी विशाल नदी पर तैर रहे हो। एक विशालता, एक गोरव, गरीमा लिए तालब कितान गर्व से फूला नहीं समाता था। मटके जब तालाब के बीचो-बीच पहुँच जाते तब लड़के अपनी बहादुरी दिखाते हुए उन्हे पत्थर मार कर तोड़ने लग जाते थे। लकडियां बेबस लाचार सी केवल दर्शक बनी देखती रहती थी। तर्क ये की मटका दूसरे किनारे पहुँच गया तो गाँव कि लड़की किसी के साथ भाग जाएगी, कई-कई लकडियां मटका फूटता देख रोने लग जाती थी। अब ये कोन जाने मटके का दुख या न भाग पाने का गम। शायद इस बे-बुझें प्रश्न का उत्तर न तब तालाब के पास तब था और न शायद आज है।
कार्तिक की ठिठुरती रातों में जब गाँव की कुंवारी लकडियां भोर चार बजे उठ कर राम तला में सवा महीने स्नान करती, तब उनके गीतों में ठिठुरती ठंड से काँपते होठों का कम्पन साफ़ सुनाई देता था। तालाब भी मानो उस ठन्ड़े पन मैं सुबकीयाँ ले रहा हो। बैल गाडियों के ऊपर उलटी चारपाइयों सजा कर, उन्हे हिंडोलों की तरह दुल्हन बना रंग बिरंगे कपड़े पहन पूरे गाँव की बहूबेटियाँ जमना स्नान करने जाती थी। पूर्णिमा का चमकता चाँद, उस दिन तालाब के सुने पन का साथी बन उसे मना रहा होता, कि क्यों आज गाँव की लकडियां उसे छोड़ दूर जमना स्नान करने जा रही हैं, क्या इसलिए की मैं स्थिर हूँ, और वो चलायमान? परन्तु जैसे ही सूर्य की किरणें उसपर फैली, पक्षियों की चह-चहाट के साथ वो भी चहक उठा था।
होली का हुड़दंग हो, या बिखरते रंग गुलाल, गाँव की प्रत्येक खुशी-गम सब में राम तला शामिल रहता था। गाँव की बारात घुड़चढी करके जाते हुए इसी तालाब के किनारे, डून्डें नीम की छाव में इकट्ठी होती थी। सब कैसे शारीर की जलन, माथे का पसीना पोंछ गहरी साँस लेते थे। माँ यही भरी पंचायत के सामने दूल्हे को दूध पिलाते हुऐ , कैसे शान और लाज से दोनों माँ और बेटे का मुहँ लाल हो जाता था। तब भी यही रामतला दूल्हे को विवाहा कर के लाने का संकल्प याद दिलाता था। नई नवेली दुल्हन इसी तालाब के किनारे, नीम की डँड़ियों से मार कर पति-पत्नी प्यार से सौटका-सौटकी खेलते, तब कैसे घूँघट की ओट से झाँकती हँसी, नए प्यार को अंकुरित कर रही होती थी। लड़का होने के सवा महीने बाद कुआँ पूजन का साक्षी भी यही तालाब था। इस तालाब और बरगद की पीड़ा अब मेरी समझ में आई, डून्डे नीम की जड़ों के पास से अतिशय मिटटी खोदने के कारण एक दिन भयंकर तूफ़ान में वो धराशायी हो गया, और फिर रामतला के खत्म होने के साथ-साथ छोटे-मोटे पेड़ पौधे भी दम तोड़ गए थे। जैसे वो उसके वियोग में स्थांरा कर प्राण त्याग रहें हों। बरगद, पीपल, सहमल गिनती के ही साहसी बुर्जुग बचे हैं।
तालाब--’’छ: सो साल पहले जब ये गाँव बसा, तब मेरे सोन्द्रय और स्वच्छ: निर्मल जल ने ही उन्हे यहाँ रुकने को मजबूर कर दिया था। दुर जहाँ तक आँखें देख पाती वहाँ तक जल ही जल, बादल भी शान्त-एकान्त जल में अपनी छवि देखने लिए रुक निहारने लग जाता थे। हवा बार-बार धक्के मार कर उन्हे याद दिलाती, महाराज चलो आसन से डोलो बहुत लम्बा सफ़र तै करना है। किनारे-किनारे खड़े पेड़-पौधे अपनी परछाई को देखते हुए कितने निरापद प्रतीत होते थे।’’
बरगद--’’मैने तो जब से होश सम्हाला था, चारों तरफ़ तुम्हारा ही विस्तार फैला पाया था।’’
तालाब--’’तुम जब इतने छोटे थे, कैसे मेरी लहरों को आता देख थर-थर कांपने लग जाते थे। ये तो उस ऊँचे मिटटी के टीले की मेहरबानी समझो, जिसे मैं तोड़ नहीं पाया वर्ना तो .... ...। ( ये कहते-कहते तालाब मानो उदास हो गया)
बरगद--’’हाँ दादा ये कैसा खेल हैं तुम्हीं से जीवन, तुम्ही से विलय। याद है एक रात जब बहुत तेज़ तूफ़ान आया था, कैसे जड़ तक प्राण काँप गए थे। लहरे भी किनारों से टकरा कर कैसा भयंकर शोर मचा रही थी, मानो दर्द से छटपटा कर करहा रही हो। उस भयंकर तूफ़ान ने मेरी भी एक बहुत बड़ी शाका को तोड़ दिया था, ढुन्ड़ा नीम तो उस दिन गिर कर आपकी गोद मैं धराशायी हो गया, गिरे हुए के पत्तों पर कैसी निर्भ्रम शांति छाई थी मानों गिरा नहीं सालों खड़े-खड़े थक कर सो गया है। उसके गौरव और सम्मान में प्रत्येक गाँव वालों ने उसे आखरी बिदाई से उसे घेर लिया था। उनके चेहरों पर उदासी फैली थी, किसी अपने के खोन का पीड़ा थी। इतने बड़े शोक के सामने अपने एक अंग को खोन की पीड़ा का तो मुझे भान ही नहीं रहा था। महीनों तक मेरी टहनी को नाव बना कर बच्चे किलकारियाँ
मारते हुए, तुम्हारे सीने पर कैसे किलोंलिया कर ते इस पार से उस पार आते-जाते थे। मैं उनके इस करतब ों को देख कर मन ही मन हँसता था, मुझ जीवित के पास आने से तो कैसे डर के मारे मुँह पीला पड़ जाता था, और मुर्दा तने पर सवारी, हाय ये कैसी विडम्बना.....।'' (कहते-कहते बरगद ने एक गहरी साँस ली हो)
तालाब--’’हाँ वो कितने स्वणिम और सुहाने दिन थे, अब ना वो दिन रहे न रहे वो बच्चे और न रहे वो खेल।’’
बरगद और दफ़न तालाब अपनी यादों के ऊपर गिरी धूल मिटटी को झाड़ कर उन मीठी यादों में डूब जाना चाहते थे। हमने प्रकृति का कितना संग साथ खो दिया है। आज बचे पेड़ पौधों को देखो जो सीमेंट-कंकरीट में जीवित दफ़न खड़े, कैसे लाचार, बेबस, असहाय और उदास नज़र आते है। शायद ये दर्द, ये आहें आने वाले तूफ़ान की चेतावनी तो नहीं, न बुर्जगों की कोई सुनता है और न प्रकृति के दर्द को कोई महसूस करने की कोशिश करता है। दोनो अनदेखे और त्याज्य अनादर की वस्तु बन कर रह गए है।
फिर उसके बाद मैं सालों उस बरगद के नीचे बैठ कर ध्यान करता रहा, उसको छूता, उसे बाँहों में भ्राता, उसके कानों में हलके से फुसफुसा कर कुछ कहा अनकहा सा कहने की कोशिश करता, लेकिन वो ध्वनि, वो शब्द फिर कहाँ खो गए। दूर खड़े हो कर देखता, तो लगता मुझे है इशारा कर अपने पास बुला रहा है। सर्दी की ठिठुरन, गर्मियों की तपिश, काले कजरा रे बादलों की गड़गड़ाहट, और न रिमझिम बरसती बरखा उसे हँसा पाई। वो निर्जीव सा पथराई आँखों से ख़ाली शून्य में ताकता रहता । अपनी विशालता को अपने में समेटे, उसकी सूनी टहनी या, उदास पत्ते, हवा की छुअन उन्हे धीरे हिलती खड़-खड़ाता जरूर परन्तु कुछ कहना चाह कर भी नहीं कहती थी। शायद ना वहाँ अब शब्दों की पहुँच थी, न ही ध्वनि की....एक नीरव निशब्दता छाई रहती थी उसके चारों ओर।
मैं जब भी उसे देखता, तो सोचता, उस दिन क्यों बोला। या ये सब मेरे मन का भ्रम था। शायद ये कभी न जान सकूँगा। या मैं खुद उसे जानना नहीं चाहता और एक सुखद भ्रम में जीना चाहता हूँ।
मनसा आनंद ‘मानस’
wz-29 गांव दसघरा, नई दिल्ली-110012
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