कहानी---बचपन
राम शरण भोर में सुबह तीन बजे अलार्म की आवाज सुनता, तो ऐसा लगता कहीं को सों दूर से बहती आती ध्वनि मिट्टी हुए शरीर को नए प्राण भरने की चाबी हो। जो शारीर हाड़ मास का था अब लगता है, एक मशीन बन कर रह गया है। शारीर का अंग-अंग, पोर-पोर कैसे टूटा बिखरा पडा होता, कितनी मुश्किल से सहज, समेट कर खड़ा करता था। और ये सर तो मानों जम गया है, बर्फ की तरह कैसा निष्क्रिय, बेजान अपना सर होने पर भी कैसे पराए पन का अहसास दे रहा था। सर ही क्या पूरे शारीर के स्नायु तंत्र को काम करने की कितनी जरूरत है, या उन के बिना भी काम चलता रहेगा, कितनी जीवन चेतना कि आवश्यकता पड़ती है राम शरण को कूड़ा कचरा बीनने के लिए, जीवन क्या आंख पर बंधी पट्टी की तरह केवल दारू के आस पास घूमती है, जीवन की चक्की। अब भला कोने खोले उनकी आँख जो जागे हुए होने के भ्रम में जी रहे है, साय को तो जगाया जा सकता हे, अपितु जागे को कौन जगाए। जिंदगी एक बेबस पंछी की तरह हो गई थी, पंछी तड़पती है, सर टकराता है पिंजरे से परन्तु उसकी कैद से बहार नहीं निकल पाता है। शराब के हाथों कमजोर , लाचार, बेबस, एक जीवित लाश हो गया है राम शरण।
सड़क के किनारे रेलिंग से तिरपाल बाँध कर बनाया हुआ घर, उसमे राम शरण अपने परिवार के साथ रहता है। परिवार क्या एक बच्चा और पत्नी मात्र तीन प्राणी। घर कहने में भी बड़ा अजीब लगता है, परन्तु क्या करे शब्दों को पता नहीं की कौन घर महल है, गोया या सड़क किनारे मात्र एक तिरपाल। बिछावन के लिए फट्टे चीथडे-गोदडे, किसी तरह शरीर को शीत के प्रकोप से जिन्दा रखे है, पृथ्वी माता ही उनकी सेज है, देखे गुदड़ी के लाल कितने दिन यहां रैनबसेरा रहता है, किसी दिन पड़ेंगे पुलिस के डंडे और बोरिया बिस्तर की रवानगी। धर कुज धर मजल चलेगा कारवां फिर किसी नई मंजिल की तालाश में, एक दो रातें चाँद सितारों की गोद भी गुजारनी पडे तो इस शारीर को कुछ नहीं होता यह दिखने में हाड़ मास का है, अपितु यह बज्र को हो गया है। सरदी गर्मी, बरसात को झेल कर। न ही इस शरीर पर कोई असर पड़ता है और न ही इस घर का कुछ बिगड़ता है।
बरेली के पास एक छोटा सा गांव है, ‘’भालसा’’ शहर की मशीनी जिन्दगी से कोसों दूर, कच्चे पक्के तीस चालीस घर। खेती करने लायक छ: बीघा जमीन, खाने लायक धान, ज्वार, गेहूँ, साग भाजी के लिए एक बाड़ी। परिवार के नाम पर मां-बाप और खूद राम शरण। दोनों जून चूल्हा जल जाता था। भगवान भूखे पेट नहीं सुलाता था। चार कोस गांव से स्कूल था, जहां जाकर राम शरण ने आठ क्लास तक पढ़ाई की। शायद ये चार शब्द मगज में क्या गये कि उस ने मति खराब कर दी। बहका दिया, शहर में जाकर खूब पैसा मिलेगा, मां-बाप, यार दोस्तों ने लाख समझाया-बुझाया। छोड़ क्या रखा है शहर में वह दर-दर कि ठोकरें खाने के, यही अपने घर में मां-बाप की सेवा कर, तेरे जाने के बाद इनकी देख भाल कोन करेगा। मां ने कहा: ‘तू हमारी काणें कि सी एक आँख है, दुर मत जा।’ नहीं सुनी किसी की बात आ गया भाग कर दिल्ली। न यहां कोई जान पहचान, कहां काटे पूरी रात किसी तरह रेलवे पलेट फार्म पर गुजारी, दो तीन दिन इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहा क्या काम मिलता, अखीर ती चार दिन बाद पास ही चाय बाले ने अपने पास रख लिया, सार दिन चाय इधर से उधर देते, कप धोता रात इतना थक जाता कि बिस्तरे में पहुंचने से पहले ही निद्रा रानी आपने आगोश में घेर लेती....बीन थैपेड़े- बिन लोरी कैसी बिन बुलाए अति निंद्रा रानी। घर पर काम करने की आदत नहीं थी, यहां सारा दिन फिरकनी की तरह घूमता राम शरण, चार दिन में ही राम कि याद आ गई। भैया पैसे कमाने कोई खाला जी का घर नहीं है, एक-एक खून की बूंद पसीना बन कर ना निकाल ले ये दिल्ली नहीं आती लक्ष्मी माता जेब में। परन्तु कुछ ही दिन में बन गये यार दोस्त, राय मशवरा हुआ, आखिर तय हुआ की राम शरण घर से आ गया तो खाली हाथ नहीं लोट गा। आखिर राजपूत का खून है, सो उसे एक रिक्शा किराए पर दिला दी, अपना व्यवसाय जितनी मेहनत करो उतनी अमदनी। 50 रूपये रिकशा का किराया सब निकाल कर 150-100 रूपये बचने लगे, न से तो यहीं ठीक शरीर से हट्टा-कट्टा कसरत का शारीर था राम शरण का सो धीरे-धीरे गली मोहले जान गया, रात देर तक काम करता, पास पड़ोस की दुकानों में रात को समान लदवाता, कुल मिला कर उसे पैसे कमाने का जुनून छा गया यार दोस्त राह तकते परन्तु वह काम में मशगूल रहता। हाँ कभी कभार यार दोस्तों के साथ रात सिनेमा देखने चला जाता, अब एक दो कस बीड़ी के लगा लेने के बाद एक आध पान की गिलरी भी खा लेता परन्तु और कोई ऐब उसने अपने नजदीक नहीं आने दिया था। यार दोस्त जाते जी बी रोड़, सुबह-सुबह चाय के साथ अपनी-अपनी रंगीन रातों के किस्से कहानियां भी परोसी जाती... परन्तु राम शरण को लगता सुबह भी राम का नाम नहीं लेते। रात तो गँवाई अब उस काली रात के साथ सुनहरा दिन भी गँवा रहे है। सब उसे हाजी जी कह कर चिड़ाते।
होली आई दो साल बाद राम शरण आपने गांव पहुंचा तो गांव के यार दोस्त दंग रह गए। रामू से राम नारायण शरण बन कर कैसा फुल कर कुप्पा हो घूम रहा था राम शरण, गली-गली, से गुजरते राम शरण को बड़े बूढे भी घेर लेते थे। राम शरण राम-राम कर आगे बढ़ने लगता तो सब उससे दिल्ली के हालात जानने को बेताब रहते। मानो राम शरण न आल इंडिया रेडियों दिल्ली से चल कर उनके गांव आ गया है। राम शरण की शाही ठाठ-बाट, झूठी चमक-दमक लोगो को लगने लगा की जिन्दगी तो दिल्ली बालों की है। दिल्ली न हो इंद्र की नगरी बन गई, क्या सड़कें, जगमगाती बिजली की बत्तियां, मानो आप दिल्ली पहुचे नहीं कि लगे हरे-हरे नोट आप पर बरसने। न जाने कोन पैड उगे है दिल्ली में, भइया जो भी जाता है भर लाता है जेबे । अब अपने राम शरण को ही ले लो नाक पोंछनी नहीं आती थी, आधा नाक मुहँ में और आधा कमीज के बाजू पर मां बाजू घोते-घोते किलस जाती थी कपड़े को तो धोया जा सकता है। चमडा बनी बाजू को कैसे धोऊ अब देखो राम शरण के ठाट झक सफेद पहन कर बगुला भगत बन कर घुर रहा है। पढ़ाई के नाम से ही उसके तोते उड़ जाते थे। अब गटर-पटर हिन्दी में बात करता है। अपना जय राम पढ़ाई में अव्वल आता था। परन्तु वो बेचारा यही खटता रह गया खेत क्यार में। ना तो भैया बी ए , एम ए कर जाता।
राम शरण की शाही झूठी शान, चेहरे पर पाऊड़र क्रीम, बालों में तेल-फुलेल, दस हाथ दूर से ही खबर लग जाती आ रही है राम शरण की शाही सवारी। इस शाही ठाठ ने बहुत से गांव के लड़को को तो राम शरण आदर्श बन गया जैसे उनका शाह रूख खां, अब भागे गे दो चार और राम शरण के पद चिन्हों पर चल कर..; यही दिखाव तो हमारी आँखो पर पटटी बाँध देता है, सचाई तो पर्दे में छुपी मर जाती है। आ जाता है दिखलावे का दानव, जो हमारे समाज को खोखला किये जा रहा है। इतने सब के बाद लड़की देने में कोन गुरेज़ करता, अरे एक के साथ एक फ्री भी तैयार है। कोई हां तो भरे। शादी के लिए पास के ही गांव की लड़की राम दुलारी को पसंद किया गया। मां-बाप ने सोचा खूटे से बाँध देंगे तो राम शरण घर का होके रह जायेगा। जो आठ-दस हजार कमा कर लाया था। बैंड़-ताशे, गाजे-बाजे के साथ शादी में सारे गवा दिए राम शरण ने हां बदले में सारे गांव ने सराहा देखो सपूत राम शरण को अपनी कमाई से शादी की है मां बाप की एक अठठनी भी नहीं लगने दी। मां-बाप की जीवन भर की साध पूरी हो गई, आत्मा ठन्डी हो गई राम शरण के दो साल घर से दुर रहने के दूख को भी मां ने इस खुशी में कपूर की तरह उडज छू कर दिया। भूली ताही बिसार और आने बाले कल के सपनों में खो कर रह गर्इ
शादी के खर्च ने जेब की ठनक को खत्म कर दिया, तो। फिर दिल्ली की याद सताने लगी। उठने लगी गीदड़ की हुकहुकी। पहुंच गया राम शरण फिर दिल्ली की शरण में, परन्तु ने जाने क्यों अब वह दिल्ली पहले जैसी दिल्ली नहीं लगी। आदमी का चित भी शरीर की तरह ही है, शरीर को जरा आराम मिला नहीं कि शरीर में राम ही आकर बैठ जाता है। इसी तरह मन को जरा सा अंहकार का गुब्बारा फूला नहीं की उड़ा उतंग आसमानों में उड़ने। बात-बात में चीक-चीक, सवारियों कि झुक-झुक राम शरण को अंदर तक चीर जाती थी। पुलिस की झिड़कियों के साथ उनका राम नाथ डंडा भी अब राम शरण को फूटी आँख नहीं सुहाता था। न जाने क्यों राम शरण आपने आप को देख रहा था कि पहले से कुछ चिड़-चिड़ा हो गया है। गांव में जो मान सम्मान मिला था उसकी रोज-रोज निकलने लगी हवा। यही बात पहले नहीं चुभती थी। आज कैसे अंदर तक गरम तलवार की तरह चिरती चली जाती थी। मन बार-बार गांव में अटक कर रह जाता लगता अभी भाग जाए गांव वहां की गली, खेत, वो पोखरी जिस में नहाता था, वो बरसाती मिटटी की सौंधी-सौंधी सुगंध यही पर बैठे-बैठे महसूस कर रहा था। आज अपना गांव स्वर्ग तुल्य लग रहा था। आदमी का मन वहाँ कभी नहीं रहता जहां ये तन रहता है अगर ऐसा हो जाए तो उसके जीवन से सारे दुःख अविछिन्न हो जाए। यही मानव की त्रिरादशि है और यही चिर सत्य है। फिर सोचता गांव में भी पैसे से ही इज्जत थी पहले कोन राम शरण को घास डालता था। दो पैसे जेब में थे तो सब उसकी इज्जत करते थे।
मन को लाख समझाया कर लेगा गांव में खेती, बापू ने भी तो उसी खेती से पाल पोस कर मुझे इतना बड़ा किया। मानो उसे गांव की मिटटी खीचें चल जा रही थी। रात सपने भी देखता तो लगता रेल में बैठा जा रहा है, रेल दौड़ी जा रही है, पेड़, पहाड़, खेत खलिहान कैसे पीछे भागे जा रहे है, एक जगह दुर कही उसे अपना घर दिखाई दे रहा है। मां पास खड़ी है, हाथ के ईशारे से उसे पुकार रही है। रेल गाड़ी रूकने को होती है। लगता अभी रोकेगी और भाग कर घर पहुंच जाएगा मां के पास, शायद मां तो बहाना है, पीछे खड़ी राम दुलारी घूंघट की ओट में कैसे मंद-मंद मुस्कुरा रही है। लेकिन ये क्या रेल गाड़ी रूकने की बजाएं और तेज दौड़ने लगी। वे पहाड़, पेड़ मां, राम दुलारी सब पीछे छूटता चला जा रहा है..... राम शरण आवज मारता है, परन्तु आवज गले में ही अटक कर रह जाती है। अचानक न जाने क्या होता है। चल-चित्र की भाती चल रहे चित्र गायब हो जाते है और रह जात है खाली पर्दा, केवल प्रकाश, न कोई परछाई न कोई चित्र...राम शरण की अचानक आंखे खुलती है, शरीर पसीने से सरा बोर, और मारे भय के राम शरण थर-थर कांप रहा था। उठ कर उसने पानी पीया, अपने आप को सम्हाला ये कैसा सपना न इसका सर न पैर राम शरण डर गया। इस के बाद चित बेचैन रहने लगा। इस बीच रिकशा दो तीन बार टकरा भी गई दिल्ली की सड़को पर आप आंखें फाड़ कर तो चल भी नहीं सकते वो भी चाँदनी चौक, दरीबा कला मैं फिर आप खोये हुए रिक्शा चलाओंगे तो तुम्हारा राम ही मालिक है। सो यही राम शरण के साथ हुआ। रिक्शा टूटी सो अलग, ये तो भला हो सवारी के चोट नहीं आई वरना तो लेने के देने पड़ जाते। दो तीन बार ये सब देख लेने के बाद रिक्शा किराए पर देने बाले ने मना कर दिया।
अब राम शरण की दिल्ली में भला क्या शरण थी, मन मार कर दिल्ली से जाने का फेसला कर लिया। घर पर मां-बाप आंखों में नए प्राण लोट आए राम शरण सोचने लगा पहले भी घर आया था जब मेरी जेब में पैसे थे, अब भी घर आय हूं जब खाली हाथ है। परन्तु मां-बाप के चेहरे पर कोई परिर्वतन नहीं। मानों उन्हें राम शरण ही चाहिए उसकी घन दौलत नहीं। घर की रौनक लोट आई। मां की आंखों में नए जीवन के सपने सजने लगे। लगता अब सुख के दिन आएँगे बूढ़े होते अपने शरीर को देख मां को लगता, कोई कोमल पत्ता निकलने वाला है, शायद फिर कोई फूल खीलें और इस सूखे जीवन फिर बहार आ जाए। घर के सुने आँगन में न जाने कितने सालों से किसी बच्चे ने किलोल नहीं की, ये मिटटी, ये दीवारें पुकार-पुकार कर अपने सुने पन का अहसास करा रही है। राम शरण जब छोटा था, सास कैसे उसे अपनी दोनो टांगों के बीच बैठा खिलाती रहती थी। चूल्हे पर रोटी बनाते देख राम शरण कैसे किलकारी मार कर गुढुलिया भागता था। झट सास हाथ की रोटी छुड़वा कर कहती भुख लगी है इसे दो घूँट दूध पीला दे। सास का ऐसा प्यार दुलार मिला राम शरण की मां सोन देई ने कभी अपनी मां को भी याद नहीं किया, वही गुण राम शरण के बापू में है। मजाल क्या कभी डटा डपटा हो या कोई साग-भाजी को नाक मुहँ चढ़ाया हो कई बार चाय में चीनी डालना भूल जाती क्या मजाल आप उनके चेहरे से पता लगा लो की चीनी कम है। मस्त बैठे पीते रहते, जब राम दुलारी घूँट भरती तो ठहाका मार कर केवल हंस देते कभी-कभी बीना चीनी की चाय भी तो भली लगती है। और लाख कहने पर भी चाय में चीनी नहीं मिलवाते। कैसे साधु स्वभाव के राम शरण के बापू ठीक अपनी मां पे गये है। ‘मां पे पूत पिता पे घोड़ा, घना नहीं तो थोड़ा-थोड़ा।’ अब फिर राम शरण का गोन होगा ....जीवन माने कुछ भी नहीं केवल कुछ यादें या कुछ सपने।
राम दुलारी बहु के रूप में मानो लक्ष्मी बन कर आई, घर में पायल की छन-छन मा को इतनी भांति की मारे खुशी के उसका ह्रदय फटने को हो जाता मन कैसे तीस साल पीछे भाग जाता जब उसका गोना हुआ था। सास ने जो-जो लाड़ प्यार उसे दिया था। वो मय सूद के बहु पे निछावर कर देना चाहती थी सास सोन देई। उसकी चूड़ियों की खनखनाहट, बच्चों के कमरे से छन-छन के आती गुटर गूं की आवज, हंसी ठिठोली, और मंद-मंद फुसफुसाहट कानों में मिसरी सी घोलती थी। छोटे नन्हें सपने फुदक कर अंगन की मुंडेर पर बैठ जाते थे, मानों सपने न हो पक्षियों की कतार हो जरा सी आहट हुई नहीं की उड़े र्फू से। इन्हीं सपनों में मां सारा दिन खोई रहती थी। सपने तो सपने है अब इन पे भी किसी का अधिकार है, या ये भी केवल अमीरों की बपोती है, गरीब के सपने छोटे से सिमटे सुकड़े से सही और अमीर के लाखों के बस भेद मात्रा का ।
राम दुलारी रोजाना जिद करती कि दिल्ली चलना है। कब चलोगें दिल्ली, राम शरण बात को टाल मटोल कर जाता। अब त्रिया हट, कब तक बचता राम शरण कभी मिन्नत करती की एक बार दिल्ली दिखा लाओ फिर कभी नहीं कहुगी। राम शरण का दिल्ली का दूसरा अनुभव बड़ा कड़वा था। सो उसका मन ही नहीं मानता था। लेकिन कब मिन्नत, जिद में बदली और कब जिद तकरार में बदल गई पता ही नहीं चला। कुतुब की लाठ, लाल किला, इंडिया गेट, चाँदनी चौक का मीना बजार, दिल्ली-6 की गलियाँ, चाट पापड़ी और भी न जाने क्या-क्या बहीं जाकर पता चलेगा। राम शरण ने लाख समझाया दिल्ली देखने में जैसी है अंदर से इसका दिल बड़ा काला है, कहते है, श्रवण कुमार जब अपने माता पिता को चारो धाम की यात्रा करा रहा था। मथुरा की और चलते हुए जब दिल्ली की सीमा पर पहुंचा तो एक पेड़ के नीचे विश्राम करने के लिए रुका। जब काफी देर हो गई बूढे मां-बाप इन्तजार करते रहे न जाने श्रावण कुमार कहां चला गया और इधर काफी दे हो गई ओर रात होने बाली होगी। और श्रवण कुमार का पता नहीं कहा गायब हो गया। उन्होंने आवज दे कर बुलाया बेटा श्रवण कुमार कहां रह गया रात होने को है, आगे नहीं चलना बेटा। कहते है श्रवण कुमार ने कोई जवाब नहीं दिया कई बार पूछने पर श्रवण कुमार ने क्या कहा पता है। कि मैं कितनी दुर से तुम्हें ढोए चला आ रहा हुं इसके बदले में मुझे तुम क्या दोगे। मां बाप की तो समझ में नहीं आया कि यह हमारा श्रवण कुमार ही बोल रहा है या कोई। सो माता-पिता ने पूछा बैटा हम कहां है। श्रवण कुमार ने कहा हम दिल्ली की सीमा पर है, तो बेटा यहां जंगल में हम तुझे क्या दे कम से कम मथुरा तक तो चलों बही जा कर हिसाब किताब कर लेंगे। ऐसी भी क्या जल्दी है, इतनी दुर आए है तो चार कदम और सही। किसी तरह श्रवण कुमार को बहका फुसला कर मथुरा तक ले गये मथुरा पहुंचने के बाद जब इस बात का जिक्र किया तो श्रवण कुमार रोने लगा में कितना नीच हुं अपने ही मात-पिता से किराया ले रहा था। मां-पिता ने समझाया बेटा तेरा को कसूर नहीं है ये दिल्ली का पानी-मिटटी ही ऐसी है।
लाख समझाया परन्तु जितना समझाता जिद उतनी ही बढती जाती। पर कोन बिना अनुभव की माने, जो माने सो ही ज्ञानी समझो भइया, राम दुलारी तो अकड़ कर ऐसे बैठ गई माने शादी राम शरण से न कर के दिल्ली शहर से कि हो। रोज-रोज की चिक-चिक से तंग आकर बंध गया बोरी बिस्तरा दिल्ली की तरफ़, दिल्ली ने हो गई कुबेर की राजधानी हो गई लंका। भरी ठुसती दिल्ली में दो सर और सही दिल्ली का दिल इतना तो बड़ा है भैया समा लेगी सारे हिन्दुस्तान क्या अगर पाकिस्तान चाहे तो वो भी आज माले उसके सामने की भी जगह है दिल्ली के पास अरे अभी तक क्या 47 से पहले नहीं समा न रखा था पाकिस्तान को तुम तो इसे दिल्ली की दिललगी समझ रहे है। अब दिल्ली में आ तो गये पर एक बात का ध्यान रखना भैया अपने आप का ख्याल रखना दिल्ली में कही सर छुपाने की फिक्र में तुम अपना गोत्र-शासक ही भूल जाओ और अपने ही हाथ से अपने ही हाथ को सहजो तो मुसीबत खड़ी कर देगी ये दिल्ली बड़ी बेगैरत बड़े-बड़े शाही घरानों को निगल गई वंश में कोई दीपक जलाने बाला भी नहीं रहा।
अब चली दिल्ली की चक्की की पिसाई, ढुंढो सर छुपने के लिए कमरा। रेलगाड़ी के ड़ीब्बे नुमा घर, या चिड़ियाँ घर के बाड़े समझो, एक ही मकान में तीस-चालीस कमरे भला आदमी की कोई गिनती कर सकता है। लगता है सिफटों में लोग कमरों में रहते है। कमरों में ही दाल तरकारी के छोंक बधारे जा रहे है, साथ में पापड़ सलाद, चावल रोटी, अगर अचार न मिला तो खाने की रौनक ही चली गई। दो सब्जी, एक दाल तो बनेगी ही इसे तो आप गिनती में मत गिनों भैया, सारा दिन गधे की तरह कमाते है, इस पेट के लिए तो भैया ऐसे क्या देख रहे हो अपनी कमाई का खाते है किसी कि खैरात का माल नही है। क्या मुसीबत है अपना कमा के चेन से खा भी नहीं सकते लोग बाग़ पर्दा में भी झाँकते रहते है। इन दिल्ली बालों की नीयत कभी नहीं सुधर सकती। राम शरण चलते चलते ये सब कथा पुराण भी सुनते जा रहा था। तीसरी मंजिल पर कमरा मिला कमरा क्या एक खोली चलो सर छुपाने के लिए एक जगह तो मिली जिसे हम अपना कह सके। मकान भी मिला दिल्ली के बहारी भाग में शहर से करीब 15-20 मील दुर पर ये मुसीबत तो आनी ही थी। चलो दिल्ली के दिल में न सही दिल्ली के पैरो में तो राम दुलारी का जगह मिली। ये कम सौभाग्य की बात है। आस पास गांव खेड़े की जमीन को औने-पोने में मुआवज़े के नाम पर ले कर दिल्ली विकास प्राधिकरण ने दिल्ली का तो क्या विकास किया परन्तु अपने 50 वर्ष की आयु में लाखों अधिकारियों के पेट इतने बड़े कर दिये की हजारों में तो अब भरते ही नहीं करोड़ समा जाए। भला हो दि वि प्रा तेरा तू ही सच्चा रखवाला नहीं दिल्ली का तेरे साथ तेरा भाई एम सी डी तेरे साथ है तू डाल-डाल तो वो पात पात जहाँ न पहुंचे कोई वहाँ पहुचे एम सी डी। लाखों हजारों ऐसी आत्माओ का पींड दान ऐसे कर रही है जो तेरे पास हे ही नहीं न हो लेकिन उनकी हाज़री के साथ-साथ तन्खा भी डकार गई। रही सही कमी इन कोलोनाईजरों ने पूरी कर दी। इन बीस सालों में दिल्ली की आबादी हनुमान की पूछ की तरह लम्बी से लम्बी होती जा रही है गोया रावण भी अपना सर घुन लेते लगाओं आग तुम ड़ाल-ड़ाल हम पात-पात। जो आए लदे जाए, न जाने कोन से पट्टे कमानी लगाएँ है दिल्ली ने। अरे बस भी करों भाई यों, बक्सों इस निरीह अबला दिल्ली को आप ऐसा कह के तो देखो, आपको ऐसे घूर के देखेंगे जैसे आपने कोई गाली दे दी—अरे क्या तुम्हारी है, दिल्ली पूरे देश की है, हमारा भी उतना ही हक है जितना की तुम्हारा। राजधानी होने का सुख वैभव, श्राप सब सहा है दिल्ली ने। नादिर शाह, तैमूर लंग, मौहम्मद गौरी, के ज़ख़्मों को अभी तक नहीं भूल पाई है दिल्ली। आप पुरानी दिल्ली की दरो दीवारों के पास, या उन गली कूँचों में आज भी भरे खड़े हुए महसूस कर सकते हो, नादिर शाह ने लाखों बेगुनाह मासूम बच्चों के सर काट कर भालों की नोक पर टाँग दिये थे। वो खूनी दरवाजा, उसकी पत्थर, चूना, उसकी एक-एक सिराओं में छुपे पड़े है वो जख्म आप जरा पास जाकर छुईए तो सही कैसे फफक-फफक कर चित्कार कर ऊठेगे। दिल्ली का काई पेड़ खाली नहीं बचा था, जिस पर इन गोरे अंग्रेजों न दिल्ली के उन हजारों सिपाहियों को 1857 में फांसी पर लटका दिया था। आज जो मिटटी, के उपर जो चमकती सड़कें, गगन चुम्बी अलीशान ऊची-ऊची मीनारों की नीव खून की गंध पाओगें।
शहर से दुर रहने से काम धंधा भी वहीं करना पडा, परन्तु पुरानी दिल्ली जैसी न भीड़ न रौनक मेले ही थे। राम दुलारी को दो चार बार दिल्ली दर्शन भी कराया, पुरानी दिल्ली के दही भल्ला, घंटे बाले की देसी घी की जलेबी, मेद्यराज जी सोहन हलवा, पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में घूम कर कैसी चमक आ गई राम दुलारी के चेहरे पर मानों की दिल्ली दर्शन न हो कर कोई इंद्र जी का सिहासन मिल गया हो। यार दोस्तों से मिलाया, सबने साथ सिनेमा देखा, भाभी की खूब आव भगत की, हंसी ठिठोली हुए, दूर रहने का दुःख, फिर आने का निमंत्रण दिया। अब जा के कहीं शांति आई है राम दुलारी के मन को, जैसे सारे कष्टों को पल भर में छीन लिया हो इस दिल्ली नगरी ने।
फिर चली दिल्ली की चक्की की पिसाई, क्या घुन और क्या गेहूँ फिर बेचारी चक्की को क्या ज्ञात। अब दिल्ली का असली दर्शन तो अब होगा राम दुलारी को, वो तो उपर का रंग रोगन था, लुभाने के लिए, हाथी के दाँत देना पडा तो दो-चार महीने में दाल रोटी के लाले पड गए, रोजाना कि चिक-चिक, मार-पीट, इस सब की खाने के और दिखलाने के और ये दिल्ली हमसे भी पहले से जानती है। किराया जड़ ये पैसा। फिर जिनके घर पैसा है उन खिड़कियों से भी झांक कर देख लो तुम्हारा भम्र दूर हो जाएगा। वहाँ क्लेश ही नही महाकलेश पाओगे, नाहक लक्ष्मी माता को बदनाम किया जा रहा है। मनुष्य कि जीने की ही शेली यहीं है, वो चाहे जहां जेसे भी रह, वो जब तक अपने चित को नहीं बदलेगी नाहक परिस्थतियों को बहाना बनाता रहेगें।
दिन भर रिक्शा का खींचना, ऊपर से पैसे की किल्लत, घर में पत्नी की चीक-चीक का मनुष्य ने एक साधारण सा नायब तरिका ढुड़ लिया है। सोम रस कहो या मुग़ली घुटटी, नाम में क्या रखा है। दो घूँट गई नहीं की अंदर फिर पहुंचा मनुष्य इंद्र की नगरी में, न फिर कोई गाली असर करती है, मस्त मोला हो जाता है, न कोई फिक्र चिंता सताती है, शायद अंदर दब सुकड़ कर बैठ जाती होगी इस बदबू के डर से और जाएगी कहां. ये लोग..नाहक भ्रम पालते है कि मनुष्य ये नशे में सब दुःख दर्द भूल जाता है, वरना देखो जो चिंता रात को कम लग रही थी। सुबह कैसे माथे पर आकर बैठ जाती है, कैसे सर पकड़े होते सभी रातों के ये राजा।
इस सब के चलते घर में आ गया मेहमान नौ निहाल के रूप में मोहन, धर का माहौल बदला लाड़ प्यार का उदय हुआ, चिन्ता फिक्र ने भी अपने पैर पसारे, पत्नी की सेहत को ले कर, उसके खान पान को ले कर मनत्रणा-गोष्ठीया हुई बच्चें के भविष्य को ले कर मन में नई जाग्रति, नई चेतना ने करवट ली, साथ में सोगंध कसमे खाई गई आज से मैं शराब पीना ता दूर छुएगा भी नहीं। परन्तु ये क़समें तुम्हारे राष्ट पति, प्रधान मंत्रियों, और कोर्ट कचहरी बालों जैसी है, एक गीदड़ र्फरा नाहक ढकोसला करता है मनुष्य क्या उसको अभी तक यह भी ज्ञान नहीं हुआ है भैया क़समें खाने से न कोई मरता है, अब मनुष्य का मन पुराना नहीं है जो क़समें खाने से डर जाते था, तुम्हारे सारे घर्म या तो भय पर खड़े हे या फिर लोभ पर। वाह मनुष्य तू भी लकीर का फकीर ही रहेगा पढ़ना लिखना तेरे कपड़े बदलने जैसा है, अन्दर से तू आज भी वही आदम का आदम ही है।
दो-चार दिन बच्चें के भविष्य की चिन्ता को लेकर राम शरण सूफी बन गया, छोड़ दिया पीना पिलाना, लोट आई घर में रोनक शांति, जच्चा के चेहरे पर लगने लगी कुछ आस, ठीक तुम्हारे नेताओं की तरह जैसे इलैक्शन से पहले कैसे दूध के धुले मासूम भोले-भाले दिखते है, कैसे देश सेवक बन तुम्हारे द्वार-द्वार घूमते है और बाद में आप पर थूकें भी न की आप कौन बाड़ी के बथवे हो। परन्तु कुत्ते की पूंछ कभी सीधी हुर्इ हे जो राम शरण जी होते। ये तो वहीं बात हो गई भ्रम पालने जैसी की सीधा लकड़ी भी पानी में टेढ़ी दिखाई देती है।
दिन भर बच्चा दुध पीता खाने को दाल चावल के लाले, दो रूपये का दूध घर आता चाय के लिए, घी, तेल...राम..राम..माथे के टिका लगाने को भी नसीब नहीं। मुहँ छुप कर रोती राम दुलारी, कहां दूध इन छातियों में, बचपन में मां दुध देती तो कैसा लगता था, जैसे कोई जहर पीला रही है। आज उसका बच्चा एक-एक बूंद दूध को तरस रहा है। हम वो सब भी आपने बच्चों को जो हमारे मां बाप ने हम दिया है। ये तो देन है प्रकृति का उसे तो नई धरोहर को सौपना ही पड़ेगा ये तो पेड़, पौधे, चेतन, अचेतन सब जाने अनजाने दिए जा रहे है। मनुष्य का पतन तो अतिशय हो गया है। मुहँ छुपा कर रोती राम दुलारी, न जाने किस घड़ी दिल्ली आने कि ज़िद की आज मिन्नत करती है। किसी तरह एक बार घर चली जाए फिर कभी दिल्ली की तरफ मुहँ करके भी नहीं बैठे गी। परन्तु कैसा मन हो गया है, राम शरण का घर जाने के नाम पर पागल कुत्ते की तरह फाड़ने को दौड़ता है। आदमी की आस ही उसकी सांसों को चला रही है। उसे जिन्दा रखे है, ये बहुत जटिल है प्राणी की जीववेषणा की जिजिपषा को पहचानना।
शराब ने राम शरण के शरीर को खोखला कर दिया, जो शरीर चार-पांच साल पहले तीन चार आदमियों को बिठा कर बड़े मजे से रिक्शा चलाता था, वो एक दम खोखला हो गया था। सो रिकशा का भाड़ा भी देना मुशल हो गया तब रिकशा वाले ने रिक्शा किराये पर देने से मना कर दिया। अब कहां से भरे कमरे का भाड़ा सो कमरा खाली करने की नौबत आ गई, अब आ गये सड़क पर सब का मालिक नीली छतरी बाला। यही आखरी सहारा पटरी पर एक टाट तान कर घर बना लिया, समान के नाम पर चार बर्तन एक स्टोव अब शायद उसकी भी जरूरत न रहे, चार इट रखी और चूल्हा तैयार। व्यवसाय के नाम पर एक ही काम सदा बहार है, कुड़ा बीनने का जिसमे ना पूंजी की जरूरत न किसी घाटे की यानि हिंग लगे ना फिटकड़ी और रंग भी चौखा। पत्नी ने लाख समझाया, मिन्नत ची चोरी की, हाथ पेर जोड़े, बच्चे की दुहाई दी परन्तु न जाने राम शरण को क्या हो गया किसी बात का कोई असर ही नहीं होता है। अब यहाँ क्या रखा है, वहां अपना घर है, खेती बाड़ी है चलो वही जाकर रहेगें। परन्तु मनुष्य का अहंकार भी विकट होता है। न कुछ होने के बाद भी ऐसे फूला होता है। फिर जिसके पास कुछ है तो पूछो ही मत।
शायद पृथ्वी पर आने से पहले भगवान का दूत सबके कानों में इतना कह देता है कि तुम्हें विशेष मिटटी से बनाया है, अब तुम सम्हालों पृथ्वी की बाग़ ड़ौर ये सब तुम्हारे चारो तरफ घूमेगा, ये सार कार्य...किया तुम्हारे हवाले। इतनी सदियों के बाद कहीं अब जाकर संयोग से बनी है अभूतपूर्व रचना, चैन से अब जाकर कमल के फूल पर लक्ष्मी माता से पैर दबवाएगे भगवान जी... कितनी मुश्किल से ये दिन देखने को नसीब हुआ है। अरे कहने दो ‘’शोभा सिंह’’ को अपनी ‘’पहाड़ी’’ गद्दन को अभूतपूर्व रचना, रचना तो आपके रूप में घड़ी गई है। अब भला राम शरण भी कैसे माने की वो अति साधारण है। समय गुजरता गया राम शरण की हालत बद से बदतर होती चली गई पर वो अपने गांव नहीं गया सो नहीं गया।
अब शब्दों को ही ले लीजिए कैसा भ्रम जाल है, समय गुजरता गया, गुजरते हम है समय में समय तो केवल देखता भर है, समय तो इस बह्रमाण्ड़ की कील हे भला कील भी घूमती तो चाक कैसे घूमेगा। झोपड़ी मालवीय नगर से उठा दी तो साकेत पहुंच गये, साकेत नहीं तो ईस्ट आफ़ कैलाश, ये केवल नामों का ही भेद था धंधे पर कोई असर नहीं पड़ता था। और इससे आदमी को भूगोलक ज्ञान तो बढ़ता था साथ में आमदनी भी बढ़ जाती थी। एक तो पाश इलाक़ो का कुड़ा भी थोड़ा विशेष होता था।
पत्नी का रंग गौर था ये तो अंधेरे में जलती ढ़ीबरी ने देखा होगा। बहार से तो लगता है चमड़ी न हो कोई हो कोई खुरदरा कपड़े का टुकडा। उपर के इन्हीं कपड़ों के भीतर की चमड़ी कहीं-कहीं से अपने गोरे पन का अहसास कर रही थी। और तो न किसी ने देख न जाना। आंखे जो कभी कजरारी रही होगी, अब तो गहरे में चमकते दो छेद लगते है। मुहँ सुख कर भुनी शकरकन्दी जैसा हो गया था। हां अगर चमकने बाली कोई चीज रह गई थी तो वह केवल दाँत जो आज भी चेहरे के रंग रूप के दगा देने के बाद सामने पहरे पर अडिग खड़े अपनी मौजूदगी का अहसास कर रहे थे। जब होठों और चेहरे की मांस मज्जा खत्म हो गई तो दाँत बेचारे लावारिस अनाथ की तरह बहर ही खड़े रह गए।
बेटा अब छ: साल का हो गया था। शरीर पर पहनने को कपड़े नहीं मात्र एक तागड़ी जो मां ने काले मनकों की बनी रखी थी, उसके बीच-बीच में दो एक चाँदी की घुँघरू भी लटक रही थी। गले में लाल डोरा और उसमें बधा एक ताबीज-ए-सुलेमानी, जो मोहन ने चबा-चबा कर चिब्बा बना रखा था। इसी चबाने में शायद उस सूफी महात्मा की भरी हुई शक्ति ने जाने कहां उड़न छू हो गई थी। वरना तो इतने सालों में कोई चमत्कार तो दिखाए ये ताबीज मियां। मोहन को जद्द चढ़ी है कि उसके लिए अ-अनार बाली किताब लाओ रोजाना पिता को कहता है मेरे लिए अनार लाए पापा। कबाड़ी की दुकान पर हजारों किताबें धुल चाट रही होती है, मां ने कहां बच्चे का इतना भी काम नहीं कर सकते हो। पता नहीं क्या–क्या और किस्मत में लिखा है, और न जाने कितना दिन इस नरक में जीना है भगवान उठा ले.....
मोहन के पढ़ने की ज़िद्द के सामने मां सपने देखना शुरू करने लगी थी। अगर मेरा मोहन किसी तरह पढ़ लिख जाए तो शायद हमारे दिन फिर जाए। परन्तु यहाँ तो न कोई गली दिखती और न कोई रास्ता ही सूझता है। कहां पढाए कोई ठोर ठिकाना पक्का हो जब न। अपना गांव होता तो कितने मजे से मोहन आज स्कूल जा रहा होता। कई बार मन करता मोहन को ले कर घर भाग जाए फिर शंका होती की मोहन के दादा-दादी को क्या जवाब दूंगी। अपने पोते का मुहँ भी नहीं देखा है दादा-दादी या नाना नानी ने काश मेरा कोई भाई होता तो उसे बूला लेती वहीं डरा धमका कर मोहन के पापा को गांव ले जाता।
राम शरण जब सुबह तीन बजे अलार्म की आवज से उठता तो सारा शरीर कैसे अकड़ कर लकड़ी की तरह मिलता था। किसी तरह उसे समेट-सहज कर खड़ा होता, अब इस काम में भी प्रतिद्वंदता आ गई है। जरा सी देर हुई नहीं की ले जाएगा सार माल पहले आने वाला। मुहँ पर पानी के दो छिबके मारे, थोड़ी आंखें खुली, नहीं तो यह आंखें में न जाने क्या शीश भर जाता है खुलने का नाम ही नहीं लेती है। फटा-फटा कचरा कुड़ा बीनने वाला बोर समेटा। ये शरीर है कि पोर-पोर, रंद-रुद ऐसे टूटा हे फिर भी कोई शक्ति है जो जीवन को ढोए चली जा रही है। एक समस्या हो तो राड़-रोना रोया जय यहां तो समस्या पर आदमी नहीं, आदमी पर समस्ये खड़ी है।
अब इन महाराज भैरो के गणों को ही ले लो, झोला-झड़ा देखा नहीं की लगे भौंकने। एक ही सर्जनात्मक काम आता इन्हें महीने भर से रोजाना आते है। मगर क्या मजाल की आदमी को चिन्ह ले , फिर साधु महात्मा, पुलिस, फौज, और नेताओं से न जाने कोन जन्म का बेर ही इन पाजीयों को। अरे भई ये ऊंचे लोग तो ठीक है परन्तु हम कबाड़ियों को इतना सम्मान क्यों। ये ऊंचे लोग जिनके दम और पद ये दुनियां चलती है। हमें मत गिनों वरना ये सुखा पिंजर सीना ये सब से न सकेगा और फट जाएगा फुलाते ही। ये सब देख राम शरण को भी ताव आ गया की वो भी सम्मान के काबिल समझा गया, सार ऊँचा कर राम शरण मस्त हाथी की चाल चलने लगा। कानों में कैसी मधुरता भर गई मानो कुत्तों का भोंकना न हो उपनिषदों का जय घोष और मंत्र चार का गायन हो रहा है। उसे लगा वह भी कोई कीड़ा मकोड़ा नहीं है, एक महान आत्माओं के तुल्य सम्मन के काबिल है। जिसे देख भैरो के गण सम्मान से भोंकता है।
‘है भैरो बाबा के गणों तुमने खूब पहचाना, और जमीन पर दोनें हाथ जोड़ कर घुटनों के बल बैठ गया कुत्तों के सामने।’ कुत्तों के लिए अनहोनी घटना ऐसा न तो वे जानते थे और न उनके किसी पूर्वज ने ही कहां था। और न ही उनके किसी धर्म ग्रंथ में ही लिखा थ। वो तो हक्के–बक्के रहे गए सार दृश्य पटल ही बदल गया। उन्हें तो ज्ञात था ऐसा करने पर कोई मारे या पीछे भागे गा सो आज ऐसा न होता देख वो उदास-मायूस बिना भौके नीची गर्दन किये, एक कोने में कान भोज कर दुबक गए।
दिन भर की थकान के बाद राम शरण जब श्याम को घर की तरफ चलता झुमती-झामता, तब ऐसा लगता कोई आदमी न हो कपड़ों का कंकाल चला जा रहा हो। मुहँ से भयंकर दुर्गंध आती आसपास के चलते लोग नाक पे कपड़ा रख लेते, माने कोई दुर्गंध का पिटारा साथ लिए जा रहा है। नींद में चलते आदमियों की मछली बहार हो जाती, राम शरण को नहाए हुए भी 10-12 दिन हो जाते कब नहाएं ताड़ी के बाद नहाने से सार सरूर गायब हो जात है फिर पीने का मजा ही क्या रहा।
मोहन अपनी झोपड़ी के बहार खड़ा पापा का इन्तजार कर रहा है। पापा को दूर से देख कर तालियां बजाता है और नाचने लग जाता है। पापा..पापा ..आए ....। उसके चेहरे पर केसी निश्छल-निष्कपट खुशी बिखरी रही थी। कैसा निष्कपट मन है बच्चे का, कितना अमनिया होता है ये बचपन जितना इसे लम्बा किया जाए उतना ही मनुष्य जवानी में परिपूरण शान्त और मनुष्यता से भर होता है मनुष्य, लेकिन हम बच्चो से उनका क्या छिन रहे है और क्या धरोहर दे रहे है।
अगर बच्चों को संस्कारी बनाना है तो उनका बचपन मत छीनों, उन्हें तो आज हम शिक्षा के नाम से जो दे रहे है, वो तनाव, वो प्रतिर्स्पधा, वो दोड आगे बढ़ने की प्रथम आने की एक विरोध-प्रतिशोध भर रहे अपने ही साथियों के साथ, एक प्रथम आया तो दूसरा तो दूतीय ही होगा। ये सब अनैतिक है, समाज को पहल करनी होगी एक दिन आगे आकर इन किताबों के बोझ से कम कम लादे..
पिता को झुमते-झामते आते देख मोहन ने जा कर पिता का हाथ पकड़ लिया। पिता ने अपना हाथ मोहन के सर पर रखा और झोपड़ी के कोने में जाकर पड़ गया। आज भी भूल गया अ-अनार वाला कायदा लाना, पत्नी के मधु श्लोकों का उच्चारण शुरू हो जाता है जिसका राम शरण के कानों को अभ्यास हो गया गया था। अब न क्रोध आत हे न इन हाथों में मारने की ताकत है, न ही ये जबन अब चल पाती एक मिटटी बना पडा रहता है।
बेटा पास जा पिता के कन्धे पकड़ कर बड़े ही निर्बोध भाव से कहता है, ’पापा-पापा ये आपके काम की तो नहीं ये हमें मिली है।’ एक खाली शराब की बोतल आज उसे पड़ी मिली थी। पापा को खुश करने के लिए या शायद उसके काम में हाथ बटाने के लिए उसने उसे पापा के लिए संभाल कर रख लिया थी।
पिता ने एक बार सर उठ कर देखा, पर ये सर और अघिक भार बहन करने के काबिल नहीं हे, इसमें इतना कचरा कुड़ा भर गया है, शायद ये हमारी जमुना नदी की तरह कभी साफ न हो सके इसे चिता ही पवित्र करेगी। उसकी पत्थराई हुई निर्जीव आंखों में आंसू भर आए, इस सूखे पड़े वीरान में भी कुदरत ने जल भर रखा है ये भी चमत्कार से कम नहीं है। कहा भाव का पानी दबा पडा था, परन्तु वह इतने कम थे की आंखों में ही समा कर रह गये गिरे नहीं, फिर भी आंखें आंसुओं जीवित नजर आने लगी । वरना तो इनमें जीवन कब सिकुड़ कर खत्म हो गया हे। मोहन के चेहरे को प्यार से छू कर कतार निगाहों से देखते रहे एक मुर्दे की भाति फिर मुह्ं फेर कर लेट गए। बच्चा खुशी के मारे तालियां बजाता हुआ मां की गोद में भाग कर बैठ जाता है, कि उसने भी पापा की कुछ मदद की, कुछ सर्जनात्मक काम किया है।
श्याम रात में बदल रही थी थकी माँदी प्रकृति रात के आँचल में विश्राम के लिए आतुर हो रही थी। जैसे एक बच्चा मां की गोद में जाना चाहता हो। धीरे-धीरे धुंध बढ़ रही थी, वह झोपड़ी जलते बिजली के लैम्प को अपने में समेट रही थी। मानों एक झीना सा पर्दा आवछादित हो इस स्थूल को ढक लेना चाहता है, और फिर सारी प्रकृति को समान भाव में लीन कर लेगा, वहाँ न गरीब न अमीर केवल होगी गहरी शांति और एक निशब्दता, जो सब में जीवन का संचार करती है, परन्तु वो सब को चाह कर भी समान्तर नहीं बना पाती है।
मनसा आनंद ‘मानस’ ‘’जाह्नवी’’ ‘मासिक
स्वाधीनता विशेषांक, अगस्त, 2009 में
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