एक थी काली रात,
एक दिन वो कहने लगी मुझसे।
कभी तो बुझा दो अपना दीपक,
मैं थक गई हुँ बहार खड़ी सालो से।
क्यो करती हो यहॉं खड़ी इन्तजार,
हजारो घरो पे तैरा राज चलता है ।
कितने गुनहा होते तैरी छाया में,
कितनी असमतो को तुम छीन लेती हो।
क्या करू अब मैं वहॉं जाकर,
मैरे होने ने होन का कहाँ अब भेद रहा।
पहले तो सूरज भी ऊजाला देता था,
अव तो उसके होने न होने का कहॉं भेद रहा।
पहले मैं सूरज से डरती फिरती थी,
अब तो सीना फुला के चलती हुँ।
अब मेंने जीने का ढंग ढुड़ लिया,
लोगो के ह्रदयो में छुपि रहती हँ।
मरसा आनन्द 'मानस'
एक दिन वो कहने लगी मुझसे।
कभी तो बुझा दो अपना दीपक,
मैं थक गई हुँ बहार खड़ी सालो से।
क्यो करती हो यहॉं खड़ी इन्तजार,
हजारो घरो पे तैरा राज चलता है ।
कितने गुनहा होते तैरी छाया में,
कितनी असमतो को तुम छीन लेती हो।
क्या करू अब मैं वहॉं जाकर,
मैरे होने ने होन का कहाँ अब भेद रहा।
पहले तो सूरज भी ऊजाला देता था,
अव तो उसके होने न होने का कहॉं भेद रहा।
पहले मैं सूरज से डरती फिरती थी,
अब तो सीना फुला के चलती हुँ।
अब मेंने जीने का ढंग ढुड़ लिया,
लोगो के ह्रदयो में छुपि रहती हँ।
मरसा आनन्द 'मानस'