Monday, December 24, 2012

पोनी एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा,

अध्‍याय—3  
 काल चक्र एक नियति--
काल चक्र का चलना एक नियति हैं, इसकी गति मैं समस्वरता हैं,एक लय वदिता हैं, एक माधुर्य हैं पूर्णता है। जो चारों तरफ फैले जड़ चेतन का भेद  किए बिना, सब में एक धारा प्रवाह बहती रहती है।। उसके साथ बहना ही आनंद हैं, उत्सव हैं, जीवन की सरसता हैं। उसका अवरोध दु:ख, पीड़ा और संताप ही लाता हैं। लेकिन हम कहां उसे समझ पाते हमे तो खोए रहते है अपने मद में अंहकार में, पर की लोलुपता में और सच कहूं तो इस मन ने  मनुष्‍य के साथ रहने से कुछ नये आयाम छुएँ है। मन में कुछ हलचल हुई है। कुछ नई तरंगें उठी हे। मुझे पहली बार मन का भास इस मनुष्‍य  के साथ रहते हुए हुआ। ऐसा नहीं है कि मन नहीं होता पशु-पक्षियों में, होता तो है परंतु  वो निष्क्रिय होता है। सोया हुआ कुछ-कुछ अलसाया सा जगा हुआ। लेकिन मनुष्‍य  में यही मन क्रियाशील या सक्रिय हो जाता है। लेकिन मनुष्‍य में ये पूर्ण सजग, जागरूक भी हो सकता है। इस लिए उस की बेचैनी ही उसे धकेलते लिए चली जाती है। मनुष्‍य केवल मन पर रूक गया है। शायद अपने नाम को सार्थक करने के लिए ही समझो ‘’मनुष्‍य‘’ जिस का मान उच्च‍ हो गया है। इस एक मन के कारण उसके पास जो बाकी इंद्रियाँ या अतीन्‍द्रिय शक्‍ति कुदरत ने सभी प्राणीयों को दी थी वो तो धीरे-धीरे मृत प्राय सी होता जा रहा है।

पोनी एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा

अध्‍याय—2
मनुष्‍य का पहला स्‍पर्श
     मेरा जन्म दिल्ली कि अरावली पर्वत श्रृंखला के घने जंगल मैं हुआ, जो तड़पती दिल्ली के फेफडों ताजा हवा दे कर उसे जीवित रखे हुऐ है। कैसे अपने को पर्यावरण के उन भूखे भेडीयों से घूंघट की ओट मे एक छुई-मुई सी दुल्हन की अपने आप को बचाए हुऐ है। यहीं नहीं सजाने संवारने के साथ-साथ इठलाती मस्त मुस्कराती सी प्रतीत होती है । ये भी एक चमत्कार से कम नहीं है, वरना उसके अस्तित्व को खत्म करने के लिए लोग बेचैन, बेताब, इंतजार कर रहे है। गहरे बरसाती नाले, सेमल, रोझ, कीकर, बकाण, अमलतास, ढाँक और अनेक जंगली नसल के पेड़ों की भरमार है। सर्दी में झाड़ियाँ, कीकर, ढाँक के छोटे बड़े पेड़ सभी अपने पत्तों को गिरा, कैसे एक दूसरे मे समा जाना चाहते हैं। रात भर ठिठुरन के बाद सुबह की पहली किरण उपर की फूलगिंयों को छुई नहीं की नीचे कि कोमल अमराई तक सिहर उठती है। रात भर कण-कण कर नहलाई ओस की एक-एक बूँदों को सूर्य की किरणें फैली नहीं की वो उसे कैसे दूर छिटक देना चाहती हैं। पूरी प्रकृति रात मैं कैसे अल साई सी, सिहरी सी, एक अवचय सी अनिकटता साथ लिए होती हैं । उसके पास से गूजरों तो कैसे छटांक,सिहर सिमट जाना चाहती हैं।

पोनी—एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा

अध्‍याय—1
(मां से बिछुड़ना)
      क सुहानी बसंत, हवा में ठंडक के साथ थोड़ी मदहोशी छाई थी। धूप में भी हलकी-हलकी तपीस के साथ-साथ थोड़ी सुकोमलता भी थी। जो शारीर में एक सुमधुर अलसाया पन भर रही थी। कोमल अंकुरों का निकलना, पुराने के विछोह मे नए का पदार्पण, जीवन में कोमलता के साथ सजीवता फैलती जा रही था। पेड़ो की बल खाती टहनियाँ, उन पर निकले नए कोमल चमकदार रंग बिरंगे पत्ते, चारों तरफ़ सौन्दर्य बिखेर रहे थे । उन सुहावने १४ वसंतों को आज याद करना मानो जीवन के उस तल को छूना है जो आज भी मीलों लम्बा ही नहीं, अथाह अनंत-गहरा भी लग रहा हैं । ये १४ वर्ष मात्र वर्ष ही नहीं, जीवन के उस अनन्त छोर को छू लेने जैसा लगता है, जो युगों पीछे छुट गये हो।

हठीला केकटस—(65)कविता



कल जब मैंने पूछा
उस हठीले गर्बीले
ज़हरीले केकटस से
तुम कैसे करते हो निर्णय
फूल और कांटों के बनाने में
कैसे कर पाते हो
संतुलन और विभेद तुम दोनों में
तब वह कुछ चौंका
तब उसने मेरी और देखा
शायद उसने कुछ सोचा
और फिर यूं बोला
क्‍या है भेद इसमें
जो मांग है तुम्‍हारी
बस वहीं तो इति
और में नहीं होता कर्ता